Class 12th Sociology ( समाज-शास्त्र ) ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 3


Q. 31. पाश्चात्यीकरण की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।

Ans समाजशास्त्री डॉ. श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया है। पश्चिमीकरण के संदर्भ में उनका विचार है कि “पश्चिमीकरण शब्द अंग्रेजों के शासनकाल के 150 वर्षों से अधिक के परिणामस्वरूप भारतीय समाज व संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को व्यक्त करता है और इस शब्द में प्रौद्योगिक संस्थाओं, विचारधारा, मूल्यों आदि के विभिन्न स्तरों में घटित होने वाले परिवर्तनों का समावेश रहता है।”
पश्चिमीकरण का तात्पर्य देश में उस भौतिक सामाजिक जीवन का विकास होता है जिसके अंकुर पश्चिमी धरती पर प्रकट हुए और जो पश्चिमी व यूरोपीय व्यक्तियों के विस्तार के साथ-साथ विश्व के विभिन्न कोनों में अविराम गति से बढ़ता है।
पश्चिमीकरण को आधुनिकीकरण भी कह सकते हैं लेकिन अनेक समानताएँ होते हुए पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण दो अलग-अलग प्रक्रियाएँ हैं। पश्चिमीकरण के लिए पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से संपर्क होना आवश्यक है। पश्चिमीकरण एक तटस्थ प्रक्रिया है। इसमें किसी संस्कृति के अच्छे या बुरे होने का आभास नहीं होता। भारत में पश्चिमीकरण के फलस्वरूप जाति प्रथा में पाये जाने वाले ऊँच-नीच के भेद समाप्त हो रहे हैं। नगरीकरण ने जाति प्रथा पर सीधा प्रहार किया है। यातायात के साधनों के विकसित होने से, अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से सभी जातियों का रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज आदि एक जैसे हो गये हैं। महिलाओं पर पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा है। विवाह की संस्था में अब लचीलापन देखने को मिलता है। विवाह पद्धति में परिवर्तन आ रहे हैं। बाल विवाह का बहिष्कार बढ़ रहा है। अन्तर्जातीय विवाह नगरों में बढ़ रहे हैं। संयुक्त परिवार प्रथा का पतन भी देखने को मिल रहा है। रीति-रिवाज और खान-पान भी पश्चिमीकरण से प्रभावित हुआ है।


Q. 32. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।

Ans समाजशास्त्री एम० एन० श्रीनिवास के अनुसार, “संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, कर्मकांड, विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता है।”
संस्कृतिकरण में नए विचारों और मूल्यों को ग्रहण किया जाता है। निम्न जातियाँ अपनी स्थिति को ऊपर उठाने के लिए ब्राह्मणों के तौर-तरीकों को अपनाती हैं और अपवित्र समझे जाने वाले मांस-मदिरा के सेवन को त्याग देती हैं। इन कार्यों से ये भिन्न जातियाँ स्थानीय अनुक्रम में ऊँचे स्थान की अधिकारी हो गई हैं। इस प्रकार संस्कृतिकरण नये और उत्तम विचार, आदर्श मूल्य, आदत तथा कर्मकांडों को अपनी जीवन स्थिति को ऊँचा और परिमार्जित बनाने की क्रिया है।
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में स्थिति में परिवर्तन होता है। इसमें संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता। जाति व्यवस्था अपने आप नहीं बदलती। संस्कतिकरण की प्रक्रिया जातियों में ही नहीं बल्कि जनजातियों और अन्य समहों में भी पाई जाती है। भारतीय ग्रामीण समुदायों में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया प्रभु-जाति की भूमिका का कार्य करती हैं। यदि किसी क्षेत्र में ब्राह्मण प्रभु-जाति है तो वह ब्राह्मणवादी विशेषताओं को फैला देगा। जब निचली जातियाँ ऊँची जातियों के विशिष्ट चरित्र को अपनाने लगती हैं तो उनका कड़ा विरोध होता है। कभी-कभी ग्रामों में इसके लिए झगड़े भी हो जाते हैं। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया बहुत पहले से चली आ रही है। इसके लिए ब्राह्मणों का वैधीकरण आवश्यक है। ..


Q.33. धर्मनिरपेक्षीकरण से क्या अभिप्राय है ?

Ans आज व्यक्तिगत व्यवहार और कार्यों में तार्किकता का महत्व तेजी से बढ़ रहा है। जब धर्म का स्थान विज्ञान ले लेता है तो व्यक्ति के सोचने का ढंग बदल जाता है। धर्मनिरपेक्षीकरण से अभिप्राय उस सामाजिक प्रवृत्ति से है जिसके अंतर्गत धार्मिक प्रधानता और परंपरागत व्यवहारों में तार्किकता और व्यावहारिकता लाने का प्रयास किया जाता है।
धर्मनिरपेक्षीकरण से धार्मिक कट्टरपन व संकीर्णता दूर होती है और दूसरे धर्म के प्रति सहनशीलता और उदारता की भावना पनपने लगती है। धार्मिक व्यवहारों और क्रियाओं को पारलौकिक या आध्यात्मिक उद्देश्यों से नहीं अपितु सामाजिक उद्देश्यों व व्यावहारिक लाभ के लिए किया जाता है।
स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष में कई ऐसी ताकतों को बल मिला जिन्होंने धर्मनिरपेक्षीकरण को आगे बढ़ाया। महात्मा गाँधी द्वारा प्रारंभ किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन ने जनशक्ति को संगठित किया। हिन्दू समाज में प्रचलित अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जनता को प्रेरित करने से धर्म-निरपेक्षीकरण को बल मिला। धर्म-निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में पवित्रता और अपवित्रता की धारणा को काफी कमजोर किया है। नगरों में जाति और धर्म के प्रभाव की तुलना में पेशे व्यवसाय का अधिक प्रभाव रहता है। धर्म-निरपेक्षीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण जाति और धर्म के रूढ़िवादी तत्व धीरे-धीरे अपनी प्रतिष्ठा खो रहे हैं।


Q.34. धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं ? इसके बाधक करकों की चर्चा करें।

Ans धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि भारतीय राज्य सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखेगा और धार्मिक मामलों में राज्य कोई विभेद नहीं करेगा। स्पष्टतः धार्मिक मामलों में राज्य द्वारा अहस्तक्षेप एवं अविभेद ही धर्मनिपेक्षता का मूल मंत्र है। दूसरे शब्दों में हम इसे सर्वधर्म सम्भाव भी कह सकते हैं। भारत में धर्मनिरपेक्षता न केवल हमारी सांस्कृतिक विरासत है बल्कि वर्तमान में यह हमारा संवैधानिक दायित्व भी है।
यद्यपि भारतीय संविधान में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष और अब पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है पर हकीकत यह है कि समय-समय पर साम्प्रदायकि तनाव दंगे होते रहे हैं जो हमारे धर्मनिपेक्ष मस्तिष्क पर कलंक का टीका है। सच देखा जाय तो साम्प्रदायिकता हमारी राष्ट्रीय पहचान का अपमान है। स्वतंत्र भारत में हिन्दू-सिख, मुस्लिम-सिख और हिन्दू-इसाई – संबंधों में कटुता देखी जा सकती है। निसंदेह यह कटुता हमारी धर्मनिपेक्षता के मार्ग में बाधक है। बाधक के कारण और कई हैं जैसे-साक्षरता का निम्न स्तर, पड़ोसी राष्ट्र से तनावपूर्ण संबंध, अतीत की कड़वी यादें, राजनेताओं की चालबाजीओं एवं निहीत स्वार्थ, प्रेस की नकारात्मक भूमिका इत्यादि।


Q. 35. सामाजिक आंदोलन क्या है ? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।

Ans सामाजिक आंदोलन सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। ऐन्थनी गिडेन्स ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है, “सामाजिक आंदोलन को एक ऐसे सामूहिक प्रयास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसका लक्ष्य सामान्य हित को बढ़ाना होता है। सामान्य हित को प्राप्त करने के लिए किया गया सामूहिक प्रयास कभी-कभी मान्य या स्थापित संस्थाओं के दायरे से बाहर भी होता है।”

सामाजिक आंदोलन को निम्नलिखित चार प्रकारों में बाँटा जाता है

1. रूपान्तकारी आंदोलन – ऐसे भी सामाजिक आंदोलन होते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य बुनियादी सामाजिक परिवर्तन होता है। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लोग कभी-कभी हिंसा-नीति भी अपनाते हैं, जैसे-नक्सली आन्दोलन।

2. सुधारात्मक आंदोलन – जब समाज में कुछ दुर्गुण या बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं तो उसे दूर करने के लिए सामाजिक आंदोलन चलाना पड़ता है, ताकि मूल व्यवस्था को जीवंत एवं उपयोगी बनाए रखा जाय। भारत में सूफी आंदोलन, ब्रह्म समाज आंदोलन तथा आर्य समाज आंदोलन इसी प्रकार के आंदोलन हैं।

3. मुक्ति आंदोलन – समाज में कभी-कभी ऐसी बुराइयाँ फैल जाती हैं जो परे समाज के लिए खतरा बन जाती है। वैसी स्थिति में कुछ ऐसे आंदोलन चलाये जाते हैं जिससे समाज को ठीक से बनाये रखने में मदद मिलती है। आधुनिक भारत में अंबेडकर का अछूतोद्धार का कार्य एक मुक्ति आंदोलन है।

4. वैकल्पिक आंदोलन – वह आंदोलन, जिसके अंतर्गत व्यक्ति के जीवन में आंशिक परिवर्तन की कोशिश की जाती है, वैकल्पिक आंदोलन कहलाता है। इस आंदोलन का दायरा अपेक्षाकृत छोटा होता है।


Q. 36. भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकार का वर्णन करें।

Ans भारत के संविधान में देश के सभी नागरिक को छ: बुनियादी अधिकार दिए गए हैं जिन्हें मौलिक अधिकार कहते हैं। वे निम्नलिखित हैं –
(i) समानता का अधिकार – इसके अंतर्गत संविधान के द्वारा लोगों में धर्म, वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
(ii) स्वतंत्रता का अधिकार – इसके अंतर्गत अनेक ऐसे अधिकारों का उल्लेख है जिनकी सहायता से लोग एक स्वतंत्र जीवन बिता सकें।
(iii) शोषण से रक्षा का अधिकार – इसके अंतर्गत नागरिक को बेगार, बाल-श्रम तथा अन्य प्रकार के शोषण से रक्षा करने का प्रावधान है।
(iv) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार – प्रत्येक व्यक्ति बिना दबाव के किसी भी धर्म का अनुसरण कर सकता है।
(v) संस्कृति और शिक्षा का अधिकार – इसके अंतर्गत प्रत्येक वर्ग को नागरिक अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि की रक्षा कर सकता है।
(vi) संवैधानिक उपचार का अधिकार – इसके अंतर्गत नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण ले सकता है।


Q.37. दबाव समूह तथा राजनीतिक दल में अंतर स्पष्ट करें।

Ans दबाव समूह तथा राजनीतिक दल में निम्नलिखित अंतर है-

S.N दबाव समूह राजनीतिक दल
1.  यह एक गैर-राजनीतिक संगठन है। इसकी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं होती है। इसका राजनीतिक कार्यक्रम होता है तथा इसकी राजनीतिक विचारधारा होती है।
2.  यह एक छोटा संगठन है। यह व्यापक तथा विस्तृत संगठन है।
3.  इसे जनता के एक विशेष वर्ग का समर्थन प्राप्त होता है। इसका उद्देश्य देश के सभी मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करना होता है।
4.  इसका उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना नहीं होता, बल्कि अपने हितों की रक्षा करना होता है। इसका उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना होता है।
5.  यह चुनाव में भाग नहीं लेता है। यह चुनाव में भाग लेता है।
6.  यह विधान मंडल के बाहर काम करता है  यह विधान मंडल के अंदर और बाहर दोनों ही जगह कार्य करता है।
7.  एक ही समय में कोई व्यक्ति एक से अधिक दबाव समूहों का सदस्य हो सकता है। एक व्यक्ति एक समय में केवल एक ही राजनीतिक दल का सदस्य हो सकता है।
8.  यह औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार का हो सकता है।  यह औपचारिक होता है।

Q. 38. पंचायतों की असफलता के कारणों का वर्णन करें। अथवा, पंचायती राज के दोषों की विवेचना करें।

Ans निम्नलिखित दोषों के कारण पंचायती राज को आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली –

1. दलबन्दी – पंचायती राज के सामने सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक दलबन्दी की है। पंचायत के चुनाव राजनीतिक दलों से प्रभावित होने के कारण शक्तिशाली गुट पंचायतों पर अधिकार कर लेते हैं।

2. अशिक्षा – अशिक्षा के कारणं पंचायत के निर्वाचित अधिकारी और सदस्य पंचायतों की कार्य पद्धति को समचित रूप से नहीं समझ पाते हैं।

3. जातिवाद – पंचायतों के चुनाव जाति के आधार पर होता है। इसलिए लोग अपनी जाति को ही अधिक लाभ देते हैं।

4. उचित नेतृत्व का अभाव – पेशेवर नेताओं के कारण ग्राम की वास्तविक समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

5. कार्यों की अधिकता – पंचायतों को बहुत अधिक कार्य सौंप दिये गये हैं, जिन्हें सफलतापूर्वक पूरा करना अत्यधिक कठिन है। फलतः पंचायत के अधिकारी व्यावहारिक कार्यों में अधिक रुचि न लेकर कागजी खानापूर्ति में ही अपना समय नष्ट कर देते हैं।

6. निम्न आर्थिक स्थिति – पंचायतों की आय बहुत कम है। पंचायतों को सरकारी अनुदान अवश्य मिलते हैं। लेकिन इन अनुदानों से अक्सर पंचायत के कर्मचारियों का वेतन भी नहीं पूरा हो पाता है।


Q.39. पंचायती राज व्यवस्था सामाजिक बदलाव लाने में कहाँ तक सहायक रही है ?

Ans पंचायती राज व्यवस्था बलवंत राय मेहता कमिटी (1957) की अनुशंसा के आधार पर 2 अक्टूबर, 1959 को सर्वप्रथम राजस्थान के नागौर जिला में लागू किया गया। पंचायती राज व्यवस्था के पीछे दो मूलभूत दर्शन थे-एक सत्ता का विकेन्द्रीकरण तथा दूसरा जन सहभागिता। इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था लागू की गई जिसमें ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, प्रखण्ड स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद के गठन की बात की गई। पंचायती राज व्यवस्था का मूलभूत उद्देश्य प्रजातंत्र को जमीनी स्तर तक लाना रहा है ताकि ग्राम सभा से लोक सभा तक सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो और सत्ता सही मायने में आम जनता के हाथों में सौंपी जाय।
दुर्भाग्यवश कई राज्यों में पंचायतों के समय पर चुनाव ही नहीं हुए और इसकी हालत अत्यन्त दयनीय हो गई। फलस्वरूप संविधान के 73वें संशोधन द्वारा परिवर्तन लाकर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया और इसके अधिकार को बिल्कुल सुस्पष्ट कर दिया गया। पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत ग्राम पंचायत को 29 तरह के कार्य सौंपे गये हैं।
1993 के बाद पंचायती राज व्यवस्था ने सामाजिक बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बिहार भारत का पहला राज्य बना, जिसने पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50% आरक्षण दिया। बिहार सहित आज अनेक राज्यों में हमें इस तरह का आरक्षण देखने को मिलता है जो नि:संदेह महिला सशक्तिकरण के लिए महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। पंचायती राज व्यवस्था ने लोगों में न केवल राजनीतिक चेतना एवं जागरूकता लाया है बल्कि यह आर्थिक
एवं सामाजिक जागरूकता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। दलित एवं कमजोर वर्गों की आवाज आज मुखर हो रही है जो इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है।


Q. 40. ग्रामीणों की आवाज को सामने लाने में 73वाँ संविधान संशोधन अत्यंत महत्वपूर्ण है। चर्चा कीजिए।

Ans पहली बार सन् 1992 में 73वीं संविधान संशोधन के रूप में मौलिक व प्रारंभिक स्तर पर लोकतंत्र और विकेंद्रीकृत शासन का परिचय प्राप्त होता है। इस अधिनियम ने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक प्रस्थिति प्रदान की। अब यह अनिवार्य हो गया है कि स्थानीय स्वशासन के सदस्य गाँवों तथा नगरों में प्रत्येक पाँच साल में चुने जाएँ। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि स्थानीय संसाधनों पर अब चुने हुए निकायों का नियंत्रण होता है।

1. 1992 में 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज की त्रिस्तरीय व्यवस्था को लागू किया गया। इसके अंतर्गत ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड या ब्लॉक स्तर पर खंड समिति तथा जिलास्तर पर जिला परिषद् के गठन का प्रावधान किया गया।

2. संविधान के 73वें संशोधन ने बीस लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक राज्य में त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली लागू की।
3. यह अनिवार्य हो गया कि प्रत्येक पाँच वर्ष में इसके सदस्यों का चुनाव होगा।
4. इसने अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए निश्चित आरक्षित सीटें तथा महिलाओं के लिए 33% आरक्षित सीटें उपलब्ध कराईं।
5. इसने पूरे जिले के विकास प्रारूप को निर्मित करने के लिए जिला योजना समिति गठित की।

73वें और 74वें संविधान संशोधन ने ग्रामीण व नगरीय दोनों ही क्षेत्रों के स्थायी निकायों के सभी चयनित पदों में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण प्रदान किया। इनमें से 17% सीटें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। यह संशोधन इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसके अंतर्गत प्रथम बार निर्वाचित निकायों में महिलाओं को शामिल किया जिससे उन्हें निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त हुई। स्थानीय निकायों, ग्राम पंचायतों, नगर निगमों. जिला परिषदों आदि में एक तिहाई पदों पर महिलाओं का आरक्षण है। 73वें संशोधन के तंरत . बाद 1993-94 के चुनाव में 8,00,000 महिलाएँ एक साथ राजनीतिक प्रक्रियाओं से जुड़ीं। वास्तव में महिलाओं को मताधिकार देने वाला एक बड़ा निर्णय था। स्थानीय स्वशासन के लिए त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली की प्रावधान करने वाला संवैधानिक संशोधन पूरे देश में 1992-93 से लागू है।


Q. 41. भारत में प्राचीन पंचायत व्यवस्था का महत्व स्पष्ट कीजिए।

Ans भारत में पंचायत का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है। पंचायत शब्द का प्रयोग कुछ व्यक्तियों की एक सभा के लिए होता है जो गाँव के सामहिक मामलों पर फैसले । लोग पंच में इतना अधिक विश्वास करते थे कि उन्हें पंच-परमेश्वर कहा जाता थ। यह कहा जाता है कि ईश्वर उन पाँच व्यक्तियों के माध्यम से बोलता है। यह सामान्यतः स्वशासी संस्था है। भारत में पंचायत का विकास अपने लंबे इतिहास के दौरान काफी उतार-चढ़ावों से भरा रहा है। यह सामान्यतः स्वशासी संस्था है। महात्मा गाँधी के राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने पर पंचायत के आदर्श पुनः जीवित हो उठे। गाँधी जी ने ग्राम पंचायत और स्वशासन पर बहुत । जोर दिया। पंचायत की अवधारणा भारत के स्वाधीनता आंदोलन में महत्वपूर्ण मुद्दा बनी रही।
स्वतंत्रता के पश्चात् संविधान के चालीसवें अनुच्छेद में राज्य के नीति निदेशक तत्व के रूप में इसे सम्मिलित किया गया। चालीसवें अनुच्छेद के अनुसार, “राज्य ग्राम पंचायतों के गठन के लिए कदम उठायेगा और उन्हें ऐसी शक्ति और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्थानीय स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाएगी।”
पंचायती राज व्यवस्था के महत्व को सभी राज्यों द्वारा स्वीकार किया गया। सामूहिक विकास योजना में ग्रामीण विकास की लगभग सभी गतिविधियों को सम्मिलित किया गया। विकास योजनाओं में लोगों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के सिद्धांत पर आधारित कई संस्थाओं का निर्माण किया गया।


Q.42. ग्राम सभा किसे कहते हैं ? ग्राम सभा के मख्य कार्य क्या हैं ?

Ans  ग्राम सभा पंचायती राज व्यवस्था की सबसे निचले स्तर की आधारभूत संस्था है। पंचायत क्षेत्र में रहने वाले सभी वयस्कों को मिलाकर ग्राम सभा बनती है। इसमें ग्राम पंचायत क्षेत्र में आने वाले गाँव की मतदाता सूची में पंजीकृत सभी लोग शामिल होते हैं। ग्राम सभा को पंचायती राज की आत्मा कहा गया है। चूंकि ग्राम पंचायत के सभी पंजीकृत मतदाता ग्राम सभा में शामिल होते हैं। यह ग्राम पंचायत की सामान्य सभा की तरह कार्य करती है।

ग्राम सभा के कार्य –

1. ग्राम सभा पंचायती राज व्यवस्था की सबसे निचले स्तर की आधारभूत संस्था है। भारतीय लोकतंत्र में यही एक संस्था है जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करती है।

2. पंचायत क्षेत्र में रहने वाले सभी वयस्कों को मिलाकर ग्राम सभा का गठन होता है। यह वार्षिक लेखा और लेखा परीक्षा प्रतिवेदन तथा प्रशासनिक रिपोर्ट को अनुमोदित करती है।

3. ग्राम सभा नये विकासात्मक कार्यों को मंजूरी देती है।
4. ग्राम सभा की वर्ष में दो बैठकें होती हैं।


Q. 43. संविधान के 73वें संशोधन की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?

Ans  पंचायतों से संबंधित 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1992 संसद में दिसंबर 1992 में पारित हुआ और 20 अप्रैल, 1993 को इसे भारत के राष्ट्रपति की सहमति मिली। यह उस वर्ष 24 अप्रैल से प्रभावी हो गया। यह संशोधन जनता को शक्ति संपन्न करने पर आधारित है और पंचायतों को संवैधानिक गारंटी प्रदान करता है। इस अधिनियम के प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं –

1. यह पंचायतों को स्वशासी संस्थाओं के रूप में स्वीकार करता है।
2. यह पंचायत को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजना बनाने हेतु शक्ति और उत्तरदायित्व प्रदान करता है।
3. यह 20 लाख से अधिक जनसंख्या वाले सभी राज्यों के मध्य और जिला स्तर पर समान त्रिस्तरीय शक्ति संपन्न पंचायतों की स्थापना के लिए प्रबंध करता है।
4. यह पंचायतों के संगठन, अधिकार और कार्यों, वित्तीय व्यवस्था तथा चुनावों एवं समाज के कमजोर वर्गों के लिए पंचायत के विभिन्न स्तरों पर स्थानों के आरक्षण के लिए दिशा-निर्देश देता है।
संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम को मूलभूत लोकतंत्र की दिशा में क्रांतिकारी कदम कहा गया है। इससे स्वशासन में लोगों की भागीदारी के लिए संवैधानिक गारंटी प्रदान की गई है। सभी राज्यों में संशोधन के प्रावधानों के अनुकूल निश्चित विधान पारित किए गए हैं। इस प्रकार पंचायती राज व्यवस्था के इतिहास में पहली बार पंचायतों के उच्च स्तर में समानता आ गई है।


Q. 44. भूमि सुधार से आप क्या समझते हैं ? भूमि सुधार कार्यक्रमों पर प्रकाश डालें।
अथवा, भारत में भूमि सुधार के लिए उठाये गये कदमों की चर्चा करें। अथवा, भारत में भूमि सुधार पर निबंध लिखें।

Ans भूमि सुधार का तात्पर्य कृषि भूमि की एक ऐसी व्यवस्था करना है, जिससे छोटे और भूमिहीन किसानों की आर्थिक दशा में सुधार हो सके। भूमि का न्यायपूर्ण वितरण और कृषि भूमि से संबंधित व्यावहारिक नीतियाँ भूमि सुधार के सबसे सरल अर्थ को स्पष्ट करती हैं। भूमि सुधार का अर्थ उन सभी प्रयत्नों से है जिनके द्वारा पूरे कृषि संगठन में सुधार किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भूमि सुधार के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि भूमि सुधार एक ऐसा कार्यक्रम है जो कृषि संरचना के दोषों से पैदा होने वाले आर्थिक और सामाजिक विकास की बाधाओं को दूर करने के लिए बनाया जाता है। यह व्यापक अर्थ में भूमि सुधार की प्रकृति को स्पष्ट करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी देश में कृषि व्यवस्था की पूरी संरचना को विकास की ओर ले जाने के लिए जो दशाएँ जरूरी होती है, वे सभी भूमि सुधार के अंतर्गत आती हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में भूमि सुधार के लिए निम्नलिखित कदम उठाये गये –

1. जमींदारी प्रथा का उन्मूलन – सन् 1951 में कानून बनाकर जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया।

2. काश्तकारी सधार – इसके द्वारा बटाईदार या किराये पर खेती करने वाले किसानों से लिये जाने वाले किराए या लगान का नियमन किया गया।

3. जोतों की चकबंदी – इस व्यवस्था के द्वारा छोटे-छोटे खेतों को बड़े खेतों में तबदिल किया गया और सरकार के तरफ से उचित सिंचाई की व्यवस्था कराई गयी।

4. जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण – सन् 1956 से केन्द्र सरकार के निर्देश पर राज्य सरकारों द्वारा कृषि भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारित करने के लिए कानून बनाए गए। यह प्रावधान किया गया कि जिस व्यक्ति या परिवार के पास जोत की निर्धारित सीमा से अधिक भूमि है उसे सरकार द्वारा अपने अधिकार में ले लिया जायेगा और उसे भूमिहीन किसानों में बाँटी जायेगी।

5. भूमि के रिकार्ड की व्यवस्था – वर्तमान में भूमि से संबंधित दस्तावेजों की जानकारी कम्प्यूटर द्वारा तैयार की जा रही है ताकि भूमि से संबंधित विभिन्न समस्याओं का समाधान किया जा सके।


Q. 45. भारतीय समाज में भूमि सुधार कार्यक्रमों के प्रभावों की चर्चा करें।

Ans स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् कृषि पर आधारित हमारे अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए भूमि-सुधार कार्यक्रम चलाया गया, आजादी से पहले भारतीय समाज में भूमि सम्बन्ध अत्यन्त त्रुटिपूर्ण था, खेत जोतने वाला किसान तथा सरकारी शासन तंत्र के बीच एक बिचौली वर्ग हुआ करता था जिन्हें जमींदार कहा जाता था, उनका एक मात्र उद्देश्य खेत जोतने वाला किसानों को भरपूर शोषण करना, कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था को स्व-निर्भर बनाने एवं किसानों को सामाजिक तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए भूमि सुधार कार्यक्रम चलाये गए, इसके अतिरिक्त भूमि सुधार कार्यक्रम के दो और उद्देश्य थे- भूमि की हद्बन्दी तथा छोटे आकार के जमीनों का चकबन्दी। भारत में पिछले 50 वर्षों में कुछ निश्चित प्रान्तों जैसे-पश्चिम बंगाल एवं केरल आदि को छोड़कर शायद ही अन्य प्रान्तों में भूमि सुधार कार्यक्रम को वांछित सफलता मिली है।


S.N Class 12th Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न )
1. Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 1 
2. Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2
3. Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3
4. Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
5. Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5
6. Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 6
S.N Class 12th Sociology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) 
1. Sociology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 1 
2. Sociology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 2
3. Sociology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 3
4. Sociology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 4
5. Sociology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 5
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