bihar board class 12 Economics 2022 Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर ) ( 20 Marks ) PART- 4

31. विदेशी मुद्रा के वायदा बाजार तथा हाजिर (चालू) बाजार में अंतर करें। (Differentiate between Forward Market and Spot Market?)

उत्तर⇒ वायदा बाजार (Forward Market) — यह विदेशी मुद्रा का वह बाजार है जिसमें विदेशी करेंसी के क्रय-विक्रय का सौदा वर्तमान में हो जाता है पर करेंसी की देयता भविष्य में तयशुदा किसी तिथि पर होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विदेशी विनिमय से संबंधित वायदा बाजार वह बाजार है जिसमें भविष्य में किसी तिथि पर पूरे होने वाले लेन-देन का कारोबार होता है।

हाजिर बाजार (Spot Market) – यदि विदेशी मुद्रा बाजार में लेन-देन प्रकृति का है तो उसे हाजिर या चालू बाजार कहते हैं। इस प्रकार विदेशी विनिमय से संबंधित हाजिर बाजार का अर्थ उस बाजार है जिसमें केवल चालू या हाजिर लेनदेन किया जाता है।
इस बाजार का भविष्य के लेन-देन से कोई संबंध नहीं होता है। इस बाजार की प्रवृत्ति दैनिक होती है। विदेशी मुद्रा के हाजिर बाजार में लागू हो रही विनिमय दर को हाजिर दर कहा जाता है।

वायदा बाजार की मुख्य विशेषताएँ (Principal characteristics of forward market)-वायदा बाजार की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं-
(i) वायदा बाजार केवल भविष्य से संबंधित होता है।
(ii) वायदा बाजार की दूसरी प्रमुख विशेषता है कि यह भविष्य की विनिमय दर अर्थात् उस विनिमय दर को निर्धारित करता है जिसपर भविष्य में लेन-देन को पूरा किया जाना है।

हाजिर (चालू) बाजार की मुख्य विशेषताएँ (Principal characteristic of spot market)
हाजिर बाजार की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं –
(i) हाजिर बाजार दैनिक प्रकृति वाला होता है, इसका भविष्य के लेन-देन से कोई संबंध नहीं होता है।
(ii) हाजिर बाजार में जो विनिमय दर होती है, उसे तात्कालिक विनिमय दर कहा जाता है।
इस प्रकार वायदा बाजार और हाजिर बाजार के उपर्युक्त कई विशेषताएँ हैं।


32. स्थिर विनिमय दरों के गुण तथा दोषों की व्याख्या करें। (Explain merits and demerits of fixed exchange rates.)

उत्तर⇒ स्थिर विनिमय दरों के गुण (Merits of fixed exchange rates) – स्थिर विनिमय दरों के निम्न गुणों को इस प्रकार देखा जा सकता है-

(i) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि (Increase in International Trade) – स्थिर विनिमय दर का प्रथम गुण यह है कि इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि होती है।

(ii) विदेशी पूँजी को प्रोत्साहन (Incentive to foreign capital) – स्थिर विनिमय दर का दूसरा प्रमुख गुण यह है कि विनिमय दर में स्थिरता रहने से विदेशी पूँजी का आयात बढ़ता है जिससे देश के आर्थिक विकास में सहायता मिलती है।

(iii) पूँजी निर्माण में वृद्धि (Acceleration in capital formation)—स्थिर विनिमय दर का प्रमुख गुण यह है कि जब विनिमय दर में स्थिरता बनी रहती है तो उससे आंतरिक कीमत स्तर में भी स्थायित्व बना रहता है जिससे देश में पूँजी-निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है।

(iv) आर्थिक नियोजन संभव (Economic planning possible)-स्थिर विनिमय दर द्वारा आर्थिक नियोजन संभव हो पाता है क्योंकि विनिमय दर स्थिर रहने पर सरकारी परियोजनाओं के व्यय निर्धारित मात्रा से अधिक नहीं होते, सरकार के आयात मूल्यों में भी भारी उतार-चढ़ाव नहीं आता।

(v) भुगतान संतुलन बनाये रखने में सहायक (Helps in maintaining favourable balance of payments) — स्थिर विनिमय दरों के कारणं विदेशी पूँजी आकर्षित होती है, औद्योगिक विकास संभव होता है,रोजगार का विस्तार होता है, उत्पादन में वृद्धि होती है। इस सभी के फलस्वरूप देश का भुगतान संतुलन देश के अनुकूल हो जाता है।

दोष (Demerits)—स्थिर विनिमय दरों में निम्न दोष पाई जाती है-

(i) राष्ट्रीय हितों की अवहेलना (Ignores National Interest) — स्थिर विनिमय दर प्रणाली में एक प्रमुख दोष यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय हित में राष्ट्रीय हितों की बलि करनी पड़ती है।

(ii) अनेक क्षेत्रों में नियंत्रण (Controls in various sectors) — स्थिर विनिमय दर प्रणली के अंतर्गत केवल विदेशी विनिमय और भुगतानों पर ही प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है बल्कि अनेक प्रकार के अनुशासन उद्योग, बैंकिंग व्यवसाय और विदेशी व्यापार आदि पर भी लागू करना पड़ता है।

(iii) विनिमय दर में आकस्मिक उच्चावचन (Sudden fluctuations in exchange rate)-स्थिर विनिमय दर बनाए रखने में जब कोई मुद्रा कमजोर हो जाती है तब उसका आकस्मिक अवमूल्यन कर दिया जता है।


33. कीमत रेखा क्या है? एक रेखाचित्र द्वारा समझाएँ। (What is price line ? Explain with figure.)

उत्तर⇒ कीमत रेखा किसी वस्तु के प्रचलित बाजार कीमत को दर्शाती है। यह रेखा एक समतल सीधी रेखा होती है जिसका किसी भी प्रतियोगी फर्म को सामना करना पड़ता है। एक फर्म इस कीमत पर अपनी वस्तु को जितनी मात्रा में चाहे बेच सकती हैं। जब फर्म अपना निर्यात बढ़ाता है तो यह अतिरिक्त इकाई बाजार कीमत पर बेची जाती है। अतएव प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के बेचने से प्राप्त आय अर्थात् सीमांत आय (MR) और औसत आय (AR) कीमत के बराबर होते हैं। इसके फलस्वरूप सीमांत आय, औसत आय व कीमत रेखा एक ही समतल रेखा में मिल जाती है जो क्षैतिज अक्ष-X के समानांतर होती है। इस रेखा को ही कीमत रेखा कहा जाता है। इसे हम नीचे के चित्र द्वारा देख सकते हैं-कुल परिवर्तनशील लागत

ऊपर के रेखाचित्र में हम देख सकते हैं कि बाजार की मान दी हुई तथा P पर स्थिर है। अतः हमें एक समतल सीधी रेखा प्राप्त होती है जो शीर्ष अक्ष-Y को Pबिन्दु पर काटती है। यह समतल सीधी रेखा कीमत रेखा कहलाती है।


34. भारत सरकार के बजट में प्रचलित निम्न धारणाओं की व्याख्या करें। (Explain the following concepts prevalent in the budget of Government of India.)
(क) राजस्व घाटा (Revenue Deficit)
(ख) राजकोषीयााrical Deficit
(ग) प्राथमिक घाटा (Primary Deficit)

उत्तर⇒ (क) राजस्व घाटा (Revenue Deficit)- राजस्व घाटा से मतलब सरकार की राजस्व प्राप्तियाँ (कर राजस्व + गैर कर राजस्व) की तुलना में राजस्व व्यय ( योजना राजस्व व्यय + गैर योजना राजस्व व्यय ) के अधिक होने से है। सरकार जब प्राप्त किए गए राजस्व से अधिक व्यय करती है तो उसे राजस्व घाटा सहना पड़ता है।

सूत्र के रूप में
राजस्व घाटा = कुल राजस्व व्यय – कुल राजस्व प्राप्तियाँ।

(ख) राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) — राजकोषीय घाटा का अर्थ सरकार के कुल व्यय (योजना व्यय + गैर योजना व्यय) का उधार रहित कुल प्राप्तियाँ (राजस्व प्राप्तियाँ + उधार बिना पूँजी प्राप्तियाँ) से अधिक हो जाना।

सूत्र के रूप में
राजकोषीय घाटा = कुल व्यय – उधार के बिना कुल प्राप्तियाँ = कुल व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ – उधार रहित पूँजी प्राप्तियाँ।

राजकोषीय घाटे के संबंध में प्रमुख बात यह है कि इसमें उधार जो पूँजी प्राप्तियों का एक घटक है शामिल नहीं किया जाता है।

( ग ) प्राथमिक घाटा (Primary Deficit) — प्राथमिक घाटे को राजकोषीय घाटा – (Minus) ब्याज अदायगियों के रूप में परिभाषित किया जाता है। हम कह सकते हैं। यह राजकोषीय घाटे से ब्याज की अदायगियों घटाने से शेष राशि के बराबर होता है।

सूत्र के रूप में
प्राथमिक घाटा = राजकोषीय घाटा – ब्याज अदायगियाँ।


35. सारणी की सहायता से सीमान्त उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता के संबंध को बताएं। (Explain relationship between Marginal utility and Total utility.)

उत्तर⇒ सीमांत उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता में संबंध-सीमांत उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता में घनिष्ठ संबंध है। हम जानते हैं कि जैसे-जैसे किसी वस्तु की उत्तरोत्तर इकाइयों का उपभोग किया जाता है वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता घटती जाती है तथा कुल उपयोगिता में वृद्धि होती जाती है। कुल उपयोगिता की वह वृद्धि तब तक कायम रहती है जब तक सीमांत उपयोगिता शून्य नहीं हो जाती है। जब सीमांत उपयोगिता शून्य होती है तो कुल उपयोगिता अधिकतम होती है। When marginal utility is zero, total utility is maximum.
शून्य होने के बाद सीमांत उपयोगिता ऋणात्मक होने लगती है जिसके कारण कुल उपयोगिता भी घटने लगती है। इस प्रकार हम देख सकते हैं –

(i). सीमांत उपयोगिता के घटने के साथ-साथ कुल उपयोगिता तब तक बढ़ती है जब तक सीमांत उपयोगिता शून्य न हो जाए।
(ii). जब सीमांत उपयोगिता शून्य होती है तो कुल उपयोगिता अधिकतम होती है।
(iii). शून्य होने के बाद सीमांत उपयोगिता ऋणात्मक होने लगती है जिसके कारण कुल उपयोगिता भी घटने लगती है।

सीमांत उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता के संबंध को तालिका द्वारा देखा जा सकता है-

रोटी की इकाइयाँ सीमांत उपयोगिता कुल उपयोगिता
1 16 16
2 12 28
3 08 36
4 04 40
5 0 40
6 -4 36
7 -8 28

तालिका से स्पष्ट है कि चौथी रोटी के उपभोग तक सीमांत उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है लेकिन चूंकि तब तक सीमांत उपयोगिता धनात्मक रहती है। अतः कुल उपयोगिता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। पाँचवीं रोटी के उपभोग से जब शून्य के बराबर सीमांत उपयोगिता मिलती है तो कुल उपयोगिता अधिकतम अर्थात् 40 के बराबर होती है। लेकिन इसके बाद छठी एवं सातवीं इकाइयों से क्रमशः -4 और –8 के बराबर सीमान्त उपयोगिता मिलती है तो कुल उपयोगिता क्रमशः घटती है अर्थात् 36 तथा 28 हो जाती है।


36. राजस्व घाटा से क्या समझते हैं ? इसे कम करने के प्रमुख उपाय बताएं। (What do you mean by Revenue Deficit ? Explain main remedies to Revenue Deficit.)

उत्तर⇒ जब सरकार का राजस्व व्यय इसकी राजस्व प्राप्तियों से अधिक हो जाता है तो इस अन्तर को राजस्व घाटा कहते हैं।
इस प्रकार Revenue Deficit = Revenue Expenditure-Revenue Receipts.
भारत में सत्तर के दशक के बीच तक सरकार की राजस्व प्राप्तियाँ उसके राजस्व व्यय से अधिक होती थी जिससे सरकार को राजस्व आधिक्य प्राप्त होता था लेकिन उसके बाद सरकार + बजट में बराबर राजस्व घाटा रहा है यानी सरकार का राजस्व उसकी राजस्व प्राप्तियों से अधिक रहा है।
राजस्व घाटे से हमें इस बात की जानकारी मिलती है कि सरकार किस फर्म के लिए ऋण ले रही है। राजस्व घाटे से पूरे किये गए व्यय से प्रायः सम्पत्ति अथवा विनियोग में वृद्धि नहीं होती। दूसरी ओर इस घाटे को पूरा करने के लिए प्राप्त ऋणों की अदाएगी का बोझ भविष्य में बढ़ जाता है क्योंकि विनियोग के माध्यम से कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं होता।
राजस्व घाटा को कम करने के लिए निम्न उपाय किये जा सकते हैं –
(i) करों की दरों में वृद्धि करके सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है जिससे प्राप्तियाँ तथा व्यय का अंतर कम किया जा सकता है।
(ii) करों के आधार को विस्तृत करके भी सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है तथा प्राप्तियों एवं व्यय के अंतर को कम करने का प्रयास करती है।
(iii) सार्वजनिक व्यय में कटौती करके भी राजस्व घाटा को कम किया जा सकता है।


37. विनिमय दर से क्या अभिप्राय है? विदेशी विनिमय दर का निर्धारण कैसे होता है ? (What do you mean by Exchange Rate ? How is foreign exchange rate determined ?)

उत्तर⇒ विनिमय दर वह दर है जिसपर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है। विदेशी विनिमय दर यह बताती है कि किसी देश की एक इकाई के बदले में दूसरे देश की मुद्रा की कितनी इकाइयाँ मिल सकती है।
उदाहरण के लिए यदि एक अमेरिकन डालर का विनिमय, 68 भारतीय रुपये से हो तो 1 डालर = 68 रुपया।

क्राउथर (Crowther) के अनुसार, विनिमय दर एक देश की इकाई मुद्रा के बदले दूसरे देश की मुद्रा की मिलने वाली इकाइयों की माप है।”
विदेशी विनिमय का निर्धारण-विदेशी विनिमय बाजार में मुद्रा का मूल्य अथवा विनिमय दर उसकी माँग एवं पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होता है। इसे हम चित्र द्वारा देख सकते हैं –कुल परिवर्तनशील लागत

चित्र में OX रेखा पर विदेशी मुद्रा की माँग एवं पूर्ति को तथा OY रेखा पर R विनिमय दर को दिखाया गया है। DD रेखा मुद्रा की माँग की रेखा तथा SS विदेशी मुद्रा की पूर्ति की रेखा है। चित्र में माँग की रेखा DD नीचे की ओर झुकती है। इसका मतलब यह है कि जैसे-जैसे विनिमय दर में वृद्धि होती है। वैसे-वैसे विदेशी विनिमय की कम माँग की जाती है। इसका कारण यह है कि विदेशी विनिमय के मूल्य में वृद्धि होने से विदेशी वस्तुओं की घरेलू मुद्रा के रूप में लागत बढ़ जाती है और वे अधिक महँगी हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप आयातों में कमी होती है और विदेशी विनिमय की माँग घट जाती है।
चित्र में पूर्ति की रेखा SS ऊपर की ओर उठती है। इसका मतलब यह है कि जैसे-जैसे विनिमय दर में वृद्धि होती है वैसे-वैसे विदेशी विनिमय की पूर्ति बढ़ती जाती है। इसके फलस्वरूप विदेशियों के लिए घरेलू वस्तुएँ सस्ती हो जाती है। क्योंकि घरेलू मुद्रा के मूल्य में कमी आ जाती है। अतः जब विनिमय दर में वृद्धि होती है तो देश के निर्यात की माँग बढ़ जाती है जिससे विदेशी विनिमय की पूर्ति भी बढ़ती है।


38. औसत आय और सीमांत आय के बीच संबंध की व्याख्या करें। (Explain Relationship between Average Revenue and Marginal Revenue.)

उत्तर⇒ औसत आय (AR) — बेची गयी वस्तु की प्रति इकाई के आय को औसत आय कहते हैं।कुल परिवर्तनशील लागत

सीमांत आय (MR)—वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल आय में जो वृद्धि होती है, उसे सीमांत आय कहते हैं।

दोनों में संबंध – औसत आय और सीमांत आय में साधारण संबंध
(i) औसत आय (AR) तब तक बढ़ता है जब तक सीमांत आय (MR) औसत आय (AR) से अधिक है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR)= औसत आय (AR) तो औसत आय (AR) बढ़ता है।

(ii) औसत आय तब अधिकतम और स्थिर होता है जब सीमांत आय (MR), औसत आय (AR) के बराबर होता है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR) = औसत आय (AR) तो औसत आय (AR) अधिकतम होता है।

(iii) औसत आय (AR) तब गिरता है जब सीमांत आय (MR), औसत आय (AR) से कम . होता है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR), औसत आय (AR) से कम होता है। वैकल्पिक रूप में जब सीमांत आय (MR) < औसत आय (AR) तो औसत आय (AR) गिरता है। ____सीमांत आय (MR) ऋणात्मक हो सकता है लेकिन औसत आय (AR) कभी भी ऋणात्मक नहीं हो सकता है।
हम रेखाचित्र द्वारा दोनों के बीच संबंध को देख सकते हैं।कुल परिवर्तनशील लागतचित्र में स्पष्ट है कि औसत आय (AR) वक्र तब तक ऊपर उठता है जब तक सीमांत आय (MR) > औसत आय (AR) से अधिक है। औसत आय (AR) वक्र बिन्दु A तक उठता है जहाँ गिरता हुआ सीमांत आय (MR) वक्र उसे काटता है। इस बिन्दु पर सीमांत आय (MR) = औसत आय (AR) गिरता हुआ सीमांत आय (MR) ऋणात्मक हो सकता है परंतु औसत आय (AR) हमेशा धनात्मक रहती है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं रेखाचित्र यह दर्शाता है कि (i) औसत आय (AR) तब तब बढ़ते है जब तक सीमांत आय (MR)> औसत आय (AR) (ii) औसत आय (AR) अधिकतम होता है जब सीमांत आय (MR) = औसत आय (AR) (iii) औसत आय (AR) तब गिरने लगता है जब सीमांत आय < औसत आय (AR)


39. परिवर्तनशील अनुपात के नियम की व्याख्या कीजिए। ( Explain Relationship betbeen Average Revenue Marginal Revenue.)

उत्तर⇒ परिवर्तनशील अनुपात के नियम को आधुनिक अर्थशास्त्री ने अलग-अलग तरीके से इस नियम को परिभाषित किया गया है-
स्टिगलर के अनुसार, “जब कुछ उत्पत्ति साधनों को स्थिर रखकर एक उत्पत्ति साधन की इकाइयों में समान वृधि की जाए तब एक निश्चित बिंदु के बाद उत्पादन की उत्पन होने बाली व्रिधिया कम हो जाएगी अर्थात सीमांत उत्पादन घाट जाएगा ।

नियम की मान्यताएँ (Assumptions of the law)-
(i).एक उत्पत्ति साधन परिवर्तनशील है तथा अन्य स्थिर
(ii). परिवर्तनशील साधन की समस्त इकाइयाँ समरूप होती है।
(iii). तकनीकी स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होता
(iv). स्थिर साधन अविभाज्य है।
(v). विभिन्न उत्पत्ति साधन अपूर्ण स्थानापन्न होते हैं।
(vi). स्थिर साधन सीमित एवं दुर्लभ है।

परिवर्तनशील अनुपात के नियम की तीन अवस्थाओं को स्पष्ट करती है। उत्पत्ति के बढ़ते प्रतिफल की अवस्था –
प्रथम अवस्था में स्थिर साधन के साथ जैसे-जैसे परिवर्तनशील साधन की इकाइयाँ प्रयोग में बढ़ायी जाती है हमें बढ़ता हुआ उत्पादन प्राप्त होता है जिसका मुख्य कारण है कि परिवर्तनशील साधन बढ़ने पर स्थिर साधनों का पूर्ण प्रयोग संभव हो पाता है।
दूसरी अवस्था घटते प्रतिफल की अवस्था होती है—इस अवस्था में औसत उत्पादन (AP) : तथा सीमांत उत्पादन (MP) दो घट रहे होते हैं। इस अवस्था का समापन उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त उत्पादकता (MP) शून्य हो जाती है। इस अवस्था में कुल अवस्था में कुल उत्पादन (TP) भी बढ़ता है किन्तु घटती दर से बढ़ता है।
तीसरी अवस्था ऋणात्मक प्रतिफल की अवस्था होती है इस तीसरी अवस्था में सीमान्त उत्पादन (MP) शून्य से कम अर्थात् ऋणात्मक हो जाता है। इसमें सीमान्त उत्पादकता (MP) के ऋणात्मक हो जाने के कारण कुल उत्पादकता (TP) घटने लगती है।


40. पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकृत प्रतियोगिता के अंतर्गत मूल्य निर्धारण में अंतर स्पष्ट कीजिए। (Clarify the difference between perfect competition and monopolistic com petition in price determined.)

उत्तर⇒ पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की अवस्था है जिसमें क्रेताओं व विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है। जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में भी विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है लेकिन पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में कम होती है। दोनों ही बाजार अवस्थाओं में संतुलन वहाँ प्राप्त होता है जहाँ सीमांत आय (MR) तथा सीमांत लागत (MC) दोनों एक-दूसरे के बराबर होते हैं।
दोनों ही बाजार अवस्थाओं में मल्य निर्धारण के लिए अल्पकाल में लाभ सामान्य लाभ तथा हानि प्राप्त हो सकती है, जबकि दीर्घकाल में दोनों ही बाजार अवस्थाओं में केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। लेकिन फिर भी बाजार अवस्थाओं में मूल्य निर्धारण में कछ अंतर देखने
को मिलता है।
(i). पूर्ण प्रतियोगिता में माँग वक्र (अर्थात् औसत आगम = (AR) पूर्णतः मूल्य सापेक्ष होता है। यही कारण है कि उसे एक पड़ी रेखा द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, परंतु एकाधिकृत प्रतियोगिता में माँग वक्र पूर्णतः मूल्य सापेक्ष नहीं होता वरन् बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरता हुआ होता है।

(ii). पूर्ण प्रतियोगिता में जहाँ औसत आगम (AR) सीमांत आगम (MR) के बराबर होता है, एकाधिकृत प्रतियोगिता में AR, MR से अधिक होता है।

(iii). पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादक या विक्रेता की अपनी कोई कीमत नीति (Price Policy) नहीं होती, अर्थात् उसे बाजार में प्रचलित मूल्य ही स्वीकार करना पड़ता है, जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में हर उत्पादक अपनी स्वतंत्र कीमत नीति (Price Policy) अपना सकता है।

(iv). पूर्ण प्रतियोगिता में सभी फर्में एक जैसी वस्तुओं का उत्पादन करती हैं, परंतु एकाधिकृत प्रतियोगिता में वास्तविक या काल्पनिक वस्तु विभेद (Product Differentiation) पाया जाता है।

(v). पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त लागत, सीमान्त आगम तथा औसत आगम के बराबर होती है अर्थात् MC = MR = AR । परिणामतः उत्पादक को केवल सामान्य लाभ की प्राप्ति होती है, लेकिन एकाधिकृत प्रतियोगिता में सीमांत आगम सीमान्त लागत के बराबर होती है (MR = MC) परंतु औसत आगम (AR) से अधिक होता है।

(vi). एकाधिकृत प्रतियोगिता में पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में उत्पादन कम मात्रा में होता है।
इसी प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में MR = AR = AC की स्थिति होती है तथा एकाधिकृत प्रतियोगिता में MR = MC तो होता है, परंतु MR तथा MC से AR (औसत आगम) अधिक होता है।


Class 12th Economics लघु उत्तरीय प्रश्न ( 30 Marks )

1. Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 1
2. Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 2
3. Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 3
4. Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 4
5. Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 5
6. Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 6

Class 12th Economics दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ( 20 Marks )

1. Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 1
2. Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2
3. Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3
4. Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
5. Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5
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