Class 12th Economics Question paper 2022 Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर ) ( 20 Marks ) PART- 2

11. वर्धमान पैमाने का प्रतिफल क्या है? समझाइये।(What is increasing returns to goals ? Explain.)

उत्तर⇒ वर्धमान पैमाने का प्रतिफल लागत की दृष्टि से बढ़ते प्रतिफल के नियम को लागत ह्रास नियम भी कहा जाता है। बढ़ते प्रतिफल नियम के अंतर्गत परिवर्तनशील साधन की मात्रा को बढ़ाने से सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि होती है जिसके कारण औसत लागत एवं सीमांत लागत घटना आरंभ कर देती है। बढ़ते तथा घटती लागतें वस्तुत: स्थिर कीमतों के अंतर्गत समान ही है इसलिए बढ़ते प्रतिफल नियम को घटती लागत नियम भी कहते हैं।
बढ़ते प्रतिफल नियम में जब औसत लागत (AP) बढ़ता है तब सीमांत उत्पादन (MP) उससे अधिक तेजी से बढ़ता है।
लागत के शब्दों में जब औसत लागत (AC) गिरता है तो सीमांत लागत (MC) उससे अधिक तेजी से गिरती है। उत्तर


12. एक फर्म के पूर्ति की लोच क्या है? उदाहरण द्वारा समझाइये । (What is firm’s elasticity of supply? Explain with example.)

उत्तर⇒ “पूर्ति की लोच किसी वस्तु की कीमत में प्रतिशत परिवर्तन के कारण पूर्ति में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन की आय है।”
यदि किसी वस्तु की पूर्ति का उसकी कीमत बढ़ने-घटने से काफी विस्तार-संकुचन हो जाए तो उसे वस्तु की पूर्ति की कीमत लोच कहते हैं।
परन्तु कोई फर्म ऐसी वस्तु का उत्पादन करती है जिनकी पूर्ति पर उनकी कीमत का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् चाहे उनकी कीमत बढ़ जाए या कम हो जाए उनकी पूर्ति नहीं बदलती है और उतनी ही रहती है या बहुत थोड़ी बदलती है। ताजे दूध का उदाहरण हम ले सकते है। जो ताजा दूध बाजार में आ चुका है, उसे तो बेचना ही पड़ेगा चाहे कीमत भले ही बहुत कम हा गई हो। दूध ऐसी वस्तु नहीं है कि गेहूँ की तरह गोदाम में इस विचार से रखा जाए कि कीमत बढ़न पर बेचा जाएगा। अत: नश्वर, यानी जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं जैसे दूध, ताजे फल, साब्जया की पूर्ति अथवा ऐसी वस्तुओं की पूर्ति जिन्हें बनाने के लिए बहुत पूँजी आदि अधिक समय चाहिए पूर्ति की लोच बेलोचदार होती है।
फर्म द्वारा निर्मित वस्तुओं की पूर्ति अपेक्षाकृत मूल्य सापेक्ष होती है। कारखाने में मालिक अपनी वस्तु की मांग बढ़ने पर अपने कारखाने में एक पारी की बजाय दो पारी कर देते हैं और यदि आवश्यकता हुई फर्म चार पारी (Shift) भी कर देते हैं। इस प्रकार पूर्ति को काफी बढ़ाया जा सकता है। मांग घट जाने पर भी पूर्ति की पारी कम करके अथवा मजदूरों को हटाकर घटाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कारखाना उद्योगों में उत्पादन की मौसम. वर्षा आदि जैसे प्राकतिक तत्त्वों पर निर्भरता बहुत कम होती है। इस प्रकार फर्म की. पूर्ति लोच में निर्मित वस्तुओं की पूर्ति अधिक लोचदार या लोचदार होती है।


13. माँग को प्रभावित करने वाले तत्त्वों को बताएँ। (Explain factors affecting demand.)

उत्तर⇒ माँग को प्रभावित या निर्धारित करने वाले प्रमुख तत्त्व –

(i). वस्तु की उपयोगिता – उपयोगिता का मतलब होता है आवश्यकता पूर्ति की क्षमता। एक दी गई समयावधि में वस्तु की माँग का आकार इस बात पर निर्भर करता है कि मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति की वस्तु में कितनी क्षमता है। अधिक उपयोगिता वाली वस्तु की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत कम उपयोगिता वाली वस्तु की माँग कम होगी।

(ii) आय स्तर – आय स्तर का माँग पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। उपभोक्ता की आय जितनी अधिक होगी उसकी माँग उतनी ही अधिक होगी तथा उसकी आय का स्तर कम स्तर उसकी माँग को कम कर देगी।

(iii). धन का वितरण – समाज में धन के वितरण का भी माँग पर प्रभाव पड़ता है।

(iv). वस्तु की कीमत – वस्तु की कीमत माँग को मुख्य रूप से प्रभावित करती है। कम कीमत पर वस्तु की अधिक माँग तथा अधिक कीमत पर वस्तु की कम माँग होती है।

(v). संबंधित वस्तुओं की कीमतें – संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती है—
(a) स्थानापन्न वस्तुएँ—ऐसी वस्तुएँ जिनका एक-दूसरे के बदले प्रयोग किया जाता है जैसे—चीनी-गुड़, चाय-कॉफी आदि।
(b) पूरक वस्तुएँ – ऐसी वस्तुएँ जिनका उपयोग एक साथ किया जाता है, जैसे कार-पेट्रोल, स्याही-कलम. डबल रोटी-मक्खन आदि।
स्थानापन्न वस्तुओं में एक वस्तु की कीमत का परिवर्तन दूसरी वस्तु की माँग को विपरीत दिशा में प्रभावित करता है तथा पूरक वस्तुओं में एक वस्तु के कीमत परिवर्तन के कारण दूसरी वस्तु की माँग समान दिशा में बदलती है।

(vi). रुचि, फैशन आदि – वस्तु की माँग पर उपभोक्ता की रुचि, उसकी आदत, प्रचलित फैशन आदि का भी प्रभाव पड़ता है। किसी वस्तु विशेष का समाज में फैशन होने पर निश्चित रूप से उसकी माँग में वृद्धि होगी।

(vii). भविष्य में कीमत परिवर्तन की आशा – सरकारी नियंत्रण, देशी विपत्ति की आशंका, युद्ध संभावना आदि अनेक अप्रत्याशित एवं प्रत्याशित घटकों का भी वस्तु की माँग पर प्रभाव पड़ता है।
इसके अतिरिक्त, जनसंख्या परिवर्तन, व्यापार की दिशा में परिवर्तन, जलवायु, मौसम आदि का भी वस्तु की माँग पर प्रभाव पड़ता है।


14. माँग के नियम की व्याख्या करें। उसकी मान्यताओं को लिखें।(Explain the law of demand.What are its assumptions?)

उत्तर⇒ माँग का नियम किसी वस्त की कीमत तथा उसकी माँग के विपरीत संबंध को बताता है। यह नियम यह बताता है कि “अन्य बातों के समान रहने पर वस्तु की कीमत तथा वस्तु की मात्रा में विपरीत संबंध पाया जाता है।”
इस प्रकार अन्य बातों के समान रहने की दशा में किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है।
मार्शल के अनुसार, “मूल्य में कमी होने से माँग की मात्रा बढ़ती है तथा मूल्य में वृद्धि होने से माँग की मात्रा कम होती है।”
The amount demanded increase with a fall in price and diminishes with a rise in price.

माँग के नियम को हम उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-

गेहूँ की कीमतवस्तु की माँग (प्रति किलो)
4 रुपये2 किलो
3 रुपये3 किलो
2 रुपये5 किलो

तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे बाजार में गेहूँ की कीमत में कमी आती जाती है वैसे गेहूँ की माँग में वृद्धि होती जाती है। जब गेहूँ की कीमत प्रति किलो 4 रुपया है तो गेहूँ की मांग 2 किलो है, परन्तु जब गेहूँ की कीमत घटकर 2 रुपये प्रति किलो हो जाती है तो गेहूँ की माँग बढ़कर 5 किलो हो जाती है इस प्रकार गेहूँ की कीमत घटने पर गेहूँ की माँग में लगातार वृद्धि होती चली जाती है।

माँग के नियम की मान्यताएँ (Assumptions) – माँग के नियम की क्रियाशीलता कुछ मान्यताओं पर आधारित है –

(i). उपभोक्ता की आय में कोई परिवर्तन नहीं होनी चाहिए (Consumer’s income should remain constant)

(ii). उपभोक्ता की रुचि, स्वभाव, पसंद आदि में कोई परिवर्तन नहीं होनी चाहिए (Consumer’s taste, nature etc. should remain constant)

(iii). संबंधित वस्तुओं की कीमतों में कोई परिवर्तन नहीं होनी चाहिए (Prices of related goods should remain constant)

(iv). किसी नवीन स्थानापन्न वस्तु का उपभोक्ता को ज्ञान नहीं होना चाहिए (Consumer’s remains unknown with a new substitute)

(v). भविष्य में वस्तु की कीमत में परिवर्तन की संभावना नहीं होनी चाहिए (No possibility of price change in future)


15. अत्यधिक माँग का अर्थ समझाएँ। क्या यह मुद्रा स्फीति उत्पन्न करती है ? (Explain the Meaning of Excess Demand. Does it create inflation?)

उत्तर⇒ यदि अर्थव्यवस्था में सामूहिक माँग एवं सामूहिक पूर्ति में संतुलन पूर्ण रोजगार स्तर के बा ॥ है तो यह अत्यधिक या अतिरेक माँग की स्थिति होती है। हम यँ कह सकते हैं कि अतिरेक माँग या अधिक माँग तब उत्पन्न होती है जब सामूहिक माँग पूर्ण रोजगार स्तर पर सामूहिक पूर्ति से अधिक होती है। इस प्रकार “अतिरेक माँग या अत्यधिक माँग वह दशा है जिसमें सामूहिक माँग अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार के लिए आवश्यक सामूहिक पूर्ति से अधिक होती है।
Excess Demand refers to a situation in which aggregate demand becomes excess of aggregate supply corresponding to full employment in the economy.
अतिरेक माँग (Excess Demand)
AD>AS
अतिरेक माँग की इस स्थिति में सामूहिक माँग पर्याप्त माँग से अधिक होगी फलतः मांग में वृद्धि की रोजगार और उत्पादन के स्तर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी क्योंकि सभी साधनों को पहल ही पूर्ण रोजगार मिल चुका है। ऐसी स्थिति में जबकि सामूहिक माँग (AD) सामूहिक पूर्ति (AS) से अधिक हो जाती है, वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें बढ़ने लगती है जिससे मुद्रा स्फीति (inflation) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

सुधार के लिए मौद्रिक उपाय – अतिरेक माँग के सुधार के लिए निम्न मौद्रिक उपायों को किए जा सकते हैं-

(i). बैंक दर को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि साख विस्तार को संकुचन किया जा सके और माँग में कमी हो सके।
(ii). केंद्रीय बैंक को खुले बाजार में प्रतिभूतियों को बेचनी चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था में क्रयशक्ति कम हो।
(iii). नकद कोष अनुपात में वृद्धि की जानी चाहिए ताकि साख का कम विस्तार हो।
(iv). तरलता अनुपात को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि साख के विस्तार को कम किया जा सके।

इस प्रकार अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए महँगी मौद्रिक नीति अपनायी जाती है। उसके अनेक उपायों द्वारा साख की उपलब्धता को महँगा एवं दुर्लभ बनाने के प्रयास किए जाते हैं। साख महँगी होने के कारण लोग उधार लेने एवं व्यय करने के लिए हतोत्साहित होते हैं फलस्वरूप सामूहिक माँग में कमी आती है तथा अतिरेक माँग को ठीक करने में सहायता मिलती है।


16. एकाधिकारी के लाभ अधिकतमीकरण की क्या शर्ते हैं? चित्र द्वारा समझाइये। (What are the conditions of profit maximization of monopolist? Explain using diagram.)

उत्तर⇒ (1). एकाधिकारी वस्तु की अतिरिक्त इकाइयां उत्पादित करता चला जाता है जब तक कि सीमांत आय (MR), सीमांत लागत (MC) से अधिक होती है।

(2). एकाधिकारी के अधिकतम लाभ उस आय (MR) सीमांत लागत के बराबर होंगे।
एक चित्र द्वारा देखा जा सकता है –उपभोक्ता के लिए उपभोग सीमा निर्धारित करती है।

रेखाचित्र में, उत्पादन स्तर OM पर ही सीमांत आय और सीमांत लागत बराबर है क्योंकि OM के लम्बवत ऊपर बिन्दु E पर ही सीमांत लागत (MC) और सीमांत आय (MR) एक दूसरे को काटते हैं। यदि एकाधिकारी OM मात्रा से कम उत्पादित करता है तो उसे लाभ कम होंगे। इसके विपरीत यदि वह OM से अधिक उत्पादन करता है तो सीमांत लागत (MC) सीमांत आय से अधिक होगी जिससे वह OM से अतिरिक्त इकाइयों पर हानि उठा रहा होगा। अतः उत्पादन मात्रा OM पर ही उसे अधिकतम लाभ प्राप्त होंगे और इस स्तर पर ही वह सन्तलन में होगा। चित्र से स्पष्ट है कि वस्तु की OM मात्रा बेचने से एकाधिकारी को MS अथवा OP कीमत प्राप्त होगी। उसके द्वारा अर्जित कुल लाभ HTSP के क्षेत्रफल के बराबर है।


17. प्रभावी माँग क्या है? इससे देश के आय/ उत्पादन का निर्धारण कैसे होता है ?
(What is effective demand ? How does it determine a country’s incomel output?)

उत्तर⇒ प्रभावी माँग
आय के भिन्न-भिन्न स्तरों पर मांग के भिन्न-भिन्न स्तर होते हैं परंतु माँग के ये सभी स्तर प्रभावपूर्ण नहीं होते हैं अर्थात् ये सभी स्तर प्रभावपूर्ण माँग को नहीं दर्शाती हैं। केवल वही माँग जो पूर्ति द्वारा संतुलित होती, प्रभावपूर्ण मांग कहलाती है। या हम कह सकते हैं कि कुल मांग और कुल पूर्ति का कटाव बिंदु प्रभावपूर्ण मांग का बिंदु कहलाता है।
लार्ड केन्स ने अपनी पुस्तक ‘General Theory of Employment, Interest and Money जो 1936 में प्रकाशित हुई, इस पुस्तक में लार्ड केन्स के रोजगार सिद्धांत के अनुसार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अल्पकाल में कुल उत्पादन अथवा राष्ट्रीय आय रोजगार के स्तर पर निर्भर करता है क्योंकि अल्पकाल में उत्पादन के अन्य साधन जैसे-पूँजी, तकनीक आदि स्थिर रहते हैं। रोजगार का स्तर प्रभावपूर्ण मांग पर निर्भर करता है। प्रभावपूर्ण माँग सामुहिक माँग के उस स्तर को कहते हैं जिस पर वह सामूहिक पूर्ति के बराबर होती है।
केन्स के अनुसार एक अर्थव्यवस्था में आय/ रोजगार एवं उत्पादन का निधारण उस बिदु पर होता है जहाँ सामूहिक माँग और सामूहिक पूर्ति आपस में बराबर होते हैं। । अर्थात् जिस बिंदु पर सामूहिक माँग (AD) तथा सामूहिक पूर्ति (AS) आपस में बराबर होते हैं उसे प्रभावपूर्ण माँग का बिंदु कहा जाता है।
इसी कारण प्रभावपूर्ण माँग को केन्स के रोजगार सिद्धांत का प्रारंभिक बिंदु कहा जाता है।
चित्र द्वारा देखा जा सकता है –स्थायी संतुलन


18. लचीले विनिमय दर व्यवस्था में विनिमय दर का निर्धारण कैसे होता है ?
(How is exchange rate determined in the index flexible exchange rate system ?)

उत्तर⇒ लचीले विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर विदेशी मुद्रा बाजारों में विदेशी मुद्रा की मांग एवं पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है तथा विनिमय कर माँग एवं पूर्ति के परिवर्तन के साथ बदलती रहती है।
अतः R=f (D, S)
R – विनिमय दर, D- अंतर्राष्ट्रीय बाजार में विभिन्न मुद्रा की माँग, S = अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विभिन्न मुद्राओं की पूर्ति।
जिस विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा की माँग उसकी पूर्ति के बराबर हो जाए, उसे विनिमय की समता दर कहते हैं।

लचीले विनियम दर का निर्धारण – जिस प्रकार वस्तु की कीमत बाजार में मांग व पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है उसी प्रकार विनिमय दर भी विदेशी विनिमय बाजार में माँग व पूर्ति के द्वारा निर्धारित होती है। सभी देशों द्वारा वस्तुओं, सेवाओं एवं पूंजी के लेन-देन किये जाते हैं। इन लेन-देनों के बदले विदेशी विनिमय से भुगतान एवं प्राप्तियाँ होती है। जब विदेशी विनिमय से भुगतान किया जाता है तो उस देश के द्वारा विदेशी विनिमय की मांग की जाती है। इसी तरह जब विदेशी विनिमय की प्राप्तियाँ मिलती है तो उस देश में विदेशी विनिमय की पूर्ति होती है।
इस तरह विदेशी विनिमय के माँग एवं पूर्ति घटक विनिमय दर का निर्धारण करते हैं। विदेशी विनिमय की माँग मुख्य रूप से वस्तुओं एवं सेवाओं के आयात तथा विदेशों में विनियोग करने व ऋण देने के कारण उत्पन्न होती है।
विदेशी विनिमय की पूर्ति विनिमय दर और विदेशी विनिमय की पूर्ति के बीच फलनात्मक सम्बन्ध को दर्शाती है।
लचीले विनिमय दर का निर्धारण वहाँ होता है जहां विदेशी विनिमय की कुल माँग वक्र DD तथा कुल पूर्ति वक्र SS एक दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। नीचे के चित्र में OR विनिमय दर संतुलित विनिमय दर निर्धारित होती है जिस पर विदेशी मुद्रा की कुल माँग (OQ) इसका कुल पूर्ति (OQ) के बराबर होती है।स्थायी संतुलन


19. चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में चक्रीय प्रवाह को समझाएँ। (Explain the circular flow in four sector economy.)

उत्तर⇒ चार क्षेत्रीय प्रवाह मॉडल खुली अर्थव्यवस्था को प्रदर्शित करता है। चार क्षेत्रीय चक्रीय प्रवाह मॉडल में विदेशी क्षेत्र या शेष विश्व क्षेत्र को शामिल किया जाता है। वर्तमान में अर्थव्यवस्था का स्वरूप खुली अर्थव्यवस्था का है। जिसमें वस्तुओं का आयात-निर्यात होता है। जब तक अर्थव्यवस्था शेष विश्व से आयात की गई वस्तओं का भगतान करती है तो इसमें देश के बाहर शेष विश्व की ओर मुद्रा का प्रवाह होता है। दूसरी ओर जब एक देश शेष विश्व को निर्यात करता है तो दूसरे देश उसे भुगतान करते हैं। इस प्रकार शेष विश्व से इस देश की ओर मुद्रा का प्रवाह होता है।

खुली अर्थव्यवस्था में आय प्रवाह के पाँच प्रमुख स्तंभ होते हैं—
(i) परिवार क्षेत्र
(ii) व्यावसायिक क्षेत्र
(iii) सरकारी क्षेत्र
(iv) शेष विश्व क्षेत्र एवं
(v) पूँजी बाजार।

संतुलन की शर्त — चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था के चक्रीय प्रवाह में संतुलन की शर्त है –
y = C+I+G+ (X – M)
y= आय, C = उपभोक्ता व्यय, I = निवेश व्यय, G = सरकारी व्यय, (X-M) = शुद्ध निर्यात, X = निर्यात, M = आयात।

विशेषताएँ-
(i) परिवार क्षेत्र — यह क्षेत्र उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। यह क्षेत्र अपनी सेवा के बदले मजदूरी, लगान, ब्याज, लाभ के रूप में आय प्राप्त करते हैं। यह क्षेत्र अपने आय का कुछ भाग बचा लेता है जो पूँजी बाजार में चला जाता है।

(ii) उत्पादक क्षेत्र – उत्पादक क्षेत्र वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करता है जिसका उपयोग परिवार तथा सरकार द्वारा किया जाता है।

(iii) सरकारी क्षेत्र—सरकार परिवार एवं उत्पादक क्षेत्र दोनों से कर की वसूली करता है।

(iv) शेष विश्व—शेष विश्व निर्यात के लिए भुगतान प्राप्त करता है। यह क्षेत्र सरकारी खातों पर भुगतान प्राप्त करता है।

(v) पूँजी बाजार – पूँजी बाजार तीनों क्षेत्र परिवार, फर्मों तथा सरकार की बचतें एकत्रित करता है। यह क्षेत्र परिवार, फर्मे तथा सरकार को पूँजी उधार देकर निवेश करता है। पूँजी बाजार में अन्तर्प्रवाह एवं बाह्य प्रवाह बराबर होते हैं।


20. राष्ट्रीय आय की विभिन्न धारणाओं को स्पष्ट कीजिए। (Explain the various concepts of National Income.)

उत्तर⇒ राष्ट्रीय आय की अवधारणाओं में तीन बातें मुख्य रूप से हैं –

(i) राष्ट्रीय आय की धारणाएँ वस्तुओं के निरन्तर चलने वाला एक प्रवाह है अर्थात् राष्ट्रीय आय से आशय किसी एक समय पर उपलब्ध वस्तुओं के स्टॉक से नहीं बल्कि किसी समयावधि में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह में है।

(ii) राष्ट्रीय आय की धारणाएँ में सभी प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की बाजार कीमत शामिल की जाती है और एक वस्तु की कीमतें एक ही बार शामिल की जाती है, इसमें अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य ही गिना जाता है जिससे दोहरी गणना से बचा जा सके।

(iii) राष्ट्रीय आय की धारणाएँ के साथ एक निश्चित समय की अवधि जुड़ी रहती है। यह अवधि एक वर्ष की होती है।

(iv) राष्ट्रीय आय की गणना के संबंध में मूलतः दो धारणाएँ जैसे—राष्ट्रीय उत्पाद तथा घरेलू उत्पाद को आधारस्वरूप लिया जाता है। शेष सभी धारणाएँ इन धारणाएँ पर आधारित इनके स्वरूप है।


Class 12th Economics लघु उत्तरीय प्रश्न ( 30 Marks )

1.Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 1
2.Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 2
3.Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 3
4.Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 4
5.Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 5
6.Economics ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 6

Class 12th Economics दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ( 20 Marks )

1.Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 1
2.Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2
3.Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3
4.Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
5.Economics ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5
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