Class 12th Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5


Q.60.फ्रायड द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्व का वर्णन करें।

Ans ⇒ व्यक्तित्व के सरचाकी दिशा में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपना सिद्धांत प्रस्तुत किया है। परन्तु फ्रायड की अवधारणा उन मनोवैज्ञानिकों से अलग हटकर है। सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक सिंगमण्ड फ्रायड ने व्यक्तित्व संरचना के संबंध में एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने व्यक्तित्व की संरचना का वर्णन दो मॉडलों के आधार पर किया है। जिसे आकारात्मक मॉडल तथा गत्यात्मक मॉडल कहते हैं। दोनों मॉडलों का वर्णन निम्नलिखित है।

आकारात्मक मॉडल – आकारात्मक मॉडल में फ्रॉयड ने मन के तीन स्तरों की चर्चा की है। चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन। चेतन स्तर के अन्तर्गत वे चिंतन भावनाएँ और क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग जागरूक रहते हैं। अर्द्धचेतन के अन्तर्गत वैसी मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोक उस समय जागरूक होते हैं जब वे उस पर सावधानीपूर्वक ध्यान केन्द्रित करते हैं। तीसरा स्तर जिसे अचेतन कहते हैं उसमें ऐसी मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग जागरूक नहीं होते हैं।
अचेतन के संबंध में फ्रायड कहते हैं कि यह मूल प्रवृत्तिभ्यामविक अंतनौर्द का भंडार होता है। इसके अंतर्गत ऐसी घटनाएँ या विचार संग्रहित रहते हैं जो चेतन रूप से जागरूक स्थिति से छिपे होते हैं और मनोवैज्ञानिक द्वन्द्वों को उत्पन्न करते हैं। अचेतन में दलित इच्छाएँ कामुक स्वरूप ही होता है जिसे प्रकट रूप में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है इसीलिए उसका दमन हो जाता है। व्यक्ति अपने अचेतन में दमित इच्छाओं को सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीकों से अभिव्यक्त करने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहता है। यदि द्वन्द्वों के निर्माण में असफल हो जाता है। तो उसमें असामान्यता के लक्षण विकसित हो जाते हैं और उसका व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है। व्यक्ति के अचेतन को स्वप्न विश्लेषण, दैनिक जीवन की भूलें, विस्मरण आदि के आधार पर जामा आ सकता है। फ्रायड ने एक चिकित्सा पद्धति को विकसित किया जिसे मनोविश्लेषण के नाम से जाना जाता है। मनोविश्लेषण चिकित्सा पद्धति के माध्यम से अचेतन में दमित विचारों को चेतन स्तर पर लाया जाता है और रोगी को आत्मा जागरूक बनाकर समाज में अभियोजन के लायक बनाया जाता है।
व्यक्ति की संरचना के संबंध में फ्रायड ने मन के गत्यात्मक पहल की चर्चा की है उन्होंने बताया है कि यही अचेतन की ऊर्जा के रूप में होते हैं। इसके तीन तत्व-इड, इगो तथा सुपर इगो के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। ये तीन तत्व सम्प्रत्यय है न कि वास्तविक भौतिक संरचना। तीनों तत्वों का विवरण निम्नलिखित है –

इड – व्यक्ति के मूल प्रवृत्ति ऊर्जा का स्रोत इड होता है जो इसकी आदिम इच्छाओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक संतुष्टि चाहता है। यह सुख के सिद्धान्त से संचालित होता है। फ्रायड ने बताया है कि व्यक्ति की अधिकांश मूल प्रवृत्तिक अर्जा का मूल स्वाभाविक होती है और कुछ ऊर्जा आक्रामक होती है। इड को नैतिक-अनैतिक की परवाह नहीं होता है।

इगो – यह मन के गत्यात्मक पहलू का दूसरा भाग है। इसका विकास इड से होता है और यह मूल प्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के घटात्मक पर करता है। यह वास्तविक सिद्धांत से संचालित होता है। यह व्यवहार के उपयुक्त तरीकों की तलाश करता है और इच्छाओं की संतुष्टि में सहयोग करता है। इस प्रकार यह व्यक्ति को व्यवहार कुशल बनाता है।

सपर डगो – यह मन के गत्यात्मक पहलू का सबसे अन्तिम भाग है जिसका संबंध नैतिकता से होता है। सुपर इगो को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। सुपर इगो इड और इगो को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि फ्रायड ने व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र में एक नया आयाम दिया है जो पूरी तरह से मन पर आधारित है। इसके क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का निर्माण होता है।


Q. 61. What is intelligence test ? Explainits utility. (बुद्धि परीक्षण क्या है ? इसकी उपयोगिता का वर्णन करें।)

Ans ⇒ प्रत्येक बालक में कुछ जन्म ज्ञात योग्यताएँ होती हैं। यह सभी बालकों में एक समान नहीं वरन् भिन्न-भिन्न होती है। बालक की इन जन्मजात योग्यताओं को पता लगाने की विधि को बुद्धि परीक्षण कहते हैं। इसके द्वारा व्यक्ति के मानसिक विकास के स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है अथवा मापा जा सकता है।
आधुनिक काल में बुद्धि – परीक्षा परम उपयोगी सिद्ध हुई है। यह देखा गया है. कि जीवन में सफलता और असफलता तथा नई परिस्थितियों के समायोजन एवं नई समस्याओं के हल करने में बुद्धि का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यही नहीं मानव-जीवन के प्रत्येक कार्य-क्षेत्र में बुद्धि की बहुत अधिक महत्ता और उपयोगिता है। चूँकि बुद्धि परीक्षा द्वारा ही बुद्धि मापी जाती है, इसलिए उसकी भी बहुत उपयोगिता है। हम इसके कुछ उपयोगों का वर्णन नीचे करेंगे

1.मंद बुद्धि के बालकों का पता लगाना (Diagnosing Feeble-minded Children) – बुद्धि परीक्षा के द्वारा अध्यापक सरलतापूर्वक एक ही कक्षा में पढ़ने वालो में से मन्द बुद्धि और प्रखर बुद्धि के बालकों को छाँट सकता है। उनकी बुद्धि लब्धि के आधार पर वर्गीकरण कर उनके समान बुद्धि-लब्धि वाले बालकों के साथ उन्हें शिक्षा देकर उनका समुचित विकास कर सकता है। बुद्धि परीक्षा से मन्द बुद्धि, सामान्य और प्रतिभाशाली सभी प्रकार के बालकों की जानकारी आसानी से की जा सकती है। उनमें आपस में अन्तर किया जा सकता है। एक बालक जिसकी बुद्धिलब्धि 70 है वह मन्द-बुद्धि माना जाता है, जिसे विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उसे प्रखर मेधावी छात्रों के साथ जिनकी बुद्धि-लब्धि 129 से ऊपर होती है, नहीं पढ़ाया जा सकता है।

2. बाल अपराधियों से व्यवहार- (Dealing with Delinquency) – प्रायः यह देखा गया है कि अधिकतर बाल-अपराधी निम्न बौद्धिक धरातल के होते हैं। उच्च मानसिक स्तर के बाल अपराधी बहुत कम मिलते हैं। बुद्धि परीक्षण हमें इन बाल-अपराधियों के उपयुक्त व्यवहार करने में सहायता पहुँचाती है क्योंकि बुद्धि परीक्षण द्वारा बाल-अपराधी की बुद्धि-लब्धि निकाली जाती है, फिर उन बहुत से कारणों को समझा जाता है जिनसे बालक अपराधी बन जाता है या विद्रोही। अतः इस प्रकार बुद्धि-परीक्षण बाल-अपराधियों के कारणों को खोजने में, उनके समुचित व्यवहार करने में सहायता पहुँचाती है।

3. शिक्षा में उपयोगी (Use in Educational System) – बुद्धि परीक्षण का सबसे अधिक उपयोग विद्यालयों में होता है। बुद्धि-परीक्षण के आधार पर बालकों का वर्गीकरण सामान्य मन्द और प्रतिभाशाली अथवा मेधावी के रूप में किया जाता है। शैक्षिक कार्यक्रमों की सफलता के लिए आवश्यक है कि मन्द बुद्धि और मेधावी बालकों में अन्तर किया जाय। उन्हें भिन्न प्रकार की शिक्षा दी जाये, अतः निम्नलिखित कारणों से बुद्धि परीक्षण परमोपयोगी सिद्ध हुई है।

(a) बुद्धि-परीक्षण हमें यह बताती है कि पाठशाला में बालक की उन्नति में कमी का कारण उसकी मानसिक योग्यता की कमी है अथवा अन्य कोई कारण।
(b) बुद्धि-परीक्षण कम बुद्धि वाले बालकों को तुरन्तं बता देती है।
(c) बुद्धि-परीक्षण उत्कृष्ट बालक को छाँटकर बता देती है। उसकी उपयुक्त शिक्षा दीक्षा के लिए तथा उसके सम्यक विकास के लिए उचित अवसर प्रदान करने पर बल देती है।
(d) अध्यापक के आगे आने वाली समस्याओं के हल में सहायता पहुँचाती है तथा विद्यालय में बाल-अपराधियों को पहचानने में मदद देती है।
(e) बुद्धि-परीक्षण बालकों को मानसिक योग्यता का सम्यक आकलन कर उन्हें उचित मार्ग प्रदर्शन करती है।
(f) वह बुद्धि लब्धि के आधार पर किसी बालक के लिए स्पष्ट संकेत करती है कि वह कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय के उच्च अध्ययन के योग्य है अथवा नहीं।
(g) बुद्धि-परीक्षा अध्यापकों और विशेषज्ञों को बालक के लिए व्यावहारिक चुनाव में बहुत मदद देती है और उचित मार्ग प्रदर्शन करती है।

4. विशिष्ट वर्गों के अध्ययन के लिए उपयोगी (Use of Special Group) – बुद्धि-परीक्षण व्यक्तियों के विशिष्ट वर्गों के लिए परमोपयोगी है। यह विशिष्ट वर्गों, जैसे-गूंगे, बहरे और जातीय समुदायों का सर्वेक्षण करती है।

5. उद्योगों में उपयोगिता (Use in the Industires) – उद्योगों में अधिकारियों, कर्मचारियों और विशेषज्ञों के चुनाव में बुद्धि-परीक्षा बहुत सहायता देती है। चुनाव को अन्य विधियों जैसे साक्षात एवं उम्मीदवार के आवेदन पत्र जिसमें उसके पूर्व अनुभवों, शैक्षिक और सामाजिक एवं विशिष्ट योग्यताओं का लेखा-जोखा होता है के साथ बुद्धि परीक्षा भी परम उपयोगी सिद्ध होती है।


Q. 62. Write short note on mental age and 1.Q.
(मानसिक उम्र तथा बुद्धिलब्धि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।

Ans ⇒ मानसिक उम्र (Mental age) – विभिन्न बुद्धि परीक्षणों के माध्यम से बुद्धिलब्धि (I.Q.) निकालने के लिए मानसिक उम्र की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। अब प्रश्न उठता है कि मानसिक उम्र क्या है ? इस संबंध में मानसिक उम्र की एक समुचित परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-“मानसिक उम्र किसी व्यक्ति के द्वारा विकास की वह अभिव्यक्ति है जो उसके कार्यों द्वारा जानी जाती है तथा किसी आयुविशेष में उसकी अपेक्षा की जाती है।” (The mental , age is an expression of the extent of development achieved by the individual stated in terms of the performance expected at any given age.).
परिभाषा से स्पष्ट होता है कि विभिन्न उम्र स्तर में व्यक्ति विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ करता है। इससे तात्पर्य यह है कि जिस बालक की मानसिक आयु दस वर्ष बतायी जाती है, वह परीक्षा के अनुसार अपनी दस वर्ष की उम्र में ही सामान्य बालकों के समान व्यवहार करने में सफल हो जाता है।
बुद्धि-परीक्षक किसी बालक की बुद्धि-परीक्षण के लिए वस्तुओं का संकलन करता है जिसे वह परीक्षण में शामिल करना चाहता है तथा उनको एक विशिष्ट क्रम में सजाता है। फिर, विभिन्न उम्र स्तर के बच्चों को समस्या हल करने के लिए देता है। यह सब प्रकार से आयोजित किया जाता. है जिससे बच्चों के विभिन्न उम्र की सामान्य उपलब्धियों का ठीक-ठीक पता लग सके। परीक्षण में विभिन्न उम्र के प्रतिनिधि बच्चों ने कार्यों में किस सीमा पर सफलता प्राप्त की तथा एक की उम्र के अधिकांश बच्चों ने जिस कार्य को सफलतापूर्वक किया वही उस विशिष्ट उम्र की मानसिक उम्र निश्चित कर ली जाती है। उदाहरण के लिए, आठ वर्ष की उम्र के सामान्य बच्चों की औसत उपलब्धि ही उसकी आठ वर्ष की मानसिक उम्र का प्रतीक होगा। कोई भी आठ वर्ष का बच्चा ऐसे कार्यों को कर लेता है जो नौ वर्ष का सामान्य बच्चा कर सकेगा तो उसकी मानसिक आयु नौ वर्ष कहलायेगी। परन्तु, आठ वर्ष का बच्चा ऐसे कार्यों को करने में सक्षम होता है जो सात वर्ष का सामान्य बच्चा कर सकता है तो उस बच्चे की मानसिक आयु सात वर्ष ही मानी जायगी जबकि उसकी वास्तविक आयु आठ वर्ष की होगी।
इस प्रकार अपने से अधिक उम्र वाले कार्यों को करने वाले बच्चों को श्रेष्ठ तथा अपने से कम उम्र के कार्यों तक ही करनेवाले बच्चों को हीन मानते हैं।
मानसिक आयु किसी-किसी विशिष्ट उम्र में बालक की मानसिक परिपक्वता को बताती है कि बालक उस वास्तविक आयु पर मानसिक दृष्टि से कितना प्रौढ़ हुआ है। यही प्रौढ़ता एवं परिपक्वता की मात्रा मानसिक आयु है। बच्चे की उम्र में वृद्धि के साथ-साथ उसकी मानसिक परिपक्वता बढ़ती जाती है। बिने टेस्ट बच्चे की सामान्य योग्यता को मापती है, जिसका विकास थोड़े बहुत अंतर से प्रौढ़ता तक एक रूप से होता है।

बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient) – बुद्धिलब्धि (I.Q.) से तात्पर्य व्यक्ति के बुद्धि की मात्रा से है। किसी भी व्यक्ति को जो प्रतिभा प्राप्त होती है उसकी मात्रा को बताने वाली संख्या को I.Q. कहते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के पास बुद्धि की कितनी मात्रा है इसकी माप अथवा उसके द्वारा उपलब्ध बुद्धि ही बुद्धिलब्धि है।

बुद्धिलब्धि के विचार को सर्वप्रथम टरमैन (Terman) ने प्रस्तुत किया। इससे संबंधित विचार पहले स्टर्न (Stern) ने भी बताया था। स्टर्न ने मानसिक लब्धि (M.Q.) प्रस्तुत किया। इसके लिए मानसिक उम्र को वास्तविक उम्र से विभाजित किया। पहले बुद्धि की मात्रा का सही-सही ज्ञान प्राप्त करना कठिन था। केवल इस बात की जानकारी होती थी कि कौन अधिक बुद्धि का है तथा कौन कम बुद्धि का। परन्तु I.Q. से बुद्धि का मात्रात्मक मापन होने लगा। इसके आधार पर इस बात की जानकारी की जाती है कि किस बच्चे को कितनी बुद्धि है तथा एक बच्चा कितना अधिक या कम बुद्धि वाला है। I.Q. निकालने के लिए एक सूत्र का प्रतिपादन किया जो इस प्रकार है –

बुद्धि लब्धि (I.Q.) = मानसिक उम्र (M.A.)/शारीरिक उम्र (C.A.) x 100

टरमैन द्वारा दिया गया सूत्र आज भी बहुत उपयोगी है। इस सूत्र के अनुसार यदि मानसिक उम्र और वास्तविक उम्र दोनों बराबर होगा तो I.Q. एक सौ (100) होगा जो सामान्य कहलायगा। यदि मानसिक उम्र अधिक और वास्तविक उम्र अधिक होगा तो वह तीव्र बुद्धि का माना जायगा। इसी प्रकार यदि मानसिक उम्र कम और वास्तविक उम्र अधिक होगा तो वह मंद बुद्धि का माना जायेगा। नब्बे (90) से एक सौ दस (110) तक I.Q. वाले व्यक्ति को सामान्य बुद्धि माना जाता है। मानसिक उम्र को वास्तविक उम्र से विभाजित करने के बाद 100 से गुणा करने का तात्पर्य है स्कोर को फैलना एवं दशमलव को समाप्त करना। इसे एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-मान लिया कि किसी बच्चे की वास्तविक उम्र दस वर्ष और ब्लॉक डिजाइन टेस्ट (Block design test) के आधार पर उसकी मानसिक उम्र बारह वर्ष प्राप्त होती है तो उसकी बुद्धिलब्धि इस प्रकार प्राप्त होगी –

I.Q. = M.A./C.A. x 100 = 1.2 x 100 = 100 = 120 (औसत बुद्धि)

एटकिंसन एण्ड एटकिंसन तथा हिलगार्ड (Atkinson and Atkinson and Hilgard) ने अपने अध्ययनों के आधार पर एक तालिका प्रस्तुत की है, जिसमें बुद्धिलब्धि और प्रतिभा की मात्रा का संबंध दर्शाया गया है –

I.Q. वर्गीकरण प्रतिशत
140 एवं अधिक अति प्रखर 1
120 से 139 प्रखर 11
110 से 119 उच्च औसत 18
90 से 109 औसत 46
80 से 89 निम्न औसत 15
70 से 79 सीमा रेखा 6
70 से नीचे मानसिक दुर्बल 3

Q.63. What do you understand by aptitude test ? Discuss the different type of aptitude test.
(अभिक्षमता परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।)

Ans ⇒ अभिक्षमता परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति के कौशल या प्रवीणता ग्रहण करने की क्षमता का मापन किया जाता है। यह मनोविज्ञान का एक प्रमुख परीक्षण है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ ऐसी क्षमताएँ होती है, जो विशिष्ट होती है। उस क्षेत्र में यदि उसे आगे बढ़ने का अवसर दिया जाय तो वह बहुत अधिक ऊँचाई को हासिल कर सकता है। इसी विशिष्ट क्षमता को मापने के लिए विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षण का निर्माण किया है। इस दिशा में काफी पहले से ही मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रयास जारी है। इन्हीं परीक्षणों को अभिक्षमता परीक्षण के नाम से जाना जाता है। इसके अंतर्गत कई प्रकार की विशिष्ट क्षमताएँ जैसे यांत्रिक क्षमता, गणितीय क्षमता, लिपिक क्षमता, संगीत क्षमता आदि का मापन किया जाता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अभिक्षमता के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। फ्रीमैन के अनुसार, “अभिक्षमता परीक्षण से तात्पर्य उस परीक्षण से है, जिसके माध्यम से किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशिष्ट कार्य को पूरा करने में व्यक्ति में अन्तर्निहित क्षमता का मापन किया जाता है।”

अभिक्षमता परीक्षण के प्रकार (Type of aptitude test) : विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा अभिक्षमता परीक्षण के क्षेत्र में बहुत अधिक शोध किये गए हैं और परीक्षणों का निर्माण किया गया है। इन परीक्षणों के मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-एक कारक अभिक्षमता परीक्षण तथा बहुकारक अभिक्षमता परीक्षण।

1. एक कारक अभिक्षमता परीक्षण (Unifactor aptitude test) – एक कारक अभिक्षमता परीक्षण वैसे परीक्षण को कहते हैं, जिससे व्यक्ति के किसी एक प्रकार की अभिक्षमता का मापन होता है। इस प्रकार के परीक्षण की खास विशेषता यह होती है कि इसके माध्यम से व्यक्ति में निहित एक ही क्षमता का सही ढंग से और सूक्ष्म मापन से होता है। अतः इस प्रकार के परीक्षण की विश्वसनीयता एवं वैधता की मात्रा बहुत अधिक होती है। इस प्रकार के परीक्षणों में मेनिसोटा यांत्रिक अभिक्षमता परीक्षण, संगीत अभिक्षमता परीक्षण, सामान्य लिपिक अभिक्षमता परीक्षण आदि आते हैं। इस दिशा में बिहार में भी कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य किए गए हैं, जिसमें ए. के. पी. सिन्हा तथा एल० एल० के० सिन्हा द्वारा निर्मित वैज्ञानिक अभिक्षमता प्रमुख है। यह परीक्षण कॉलेज के छात्रों में निहित वैज्ञानिक क्षमता का मापन के क्षेत्र में बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ है।

2. बहुकारक अभिक्षमता परीक्षण (Multifactor aptitude test) – इसके अंतर्गत ऐसे परीक्षण आते हैं, जिसके माध्यम से व्यक्ति में निहित अनेक प्रकार की क्षमताओं का मापन एक ही जाँच के माध्यम से करते हैं। ज्यादातर अभिक्षमता परीक्षण बहकारक के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार के परीक्षणों में Different aptitude test, General aptitude battery, teaching aptitude test battery, scientific aptitude battery आदि आते हैं।
उपरोक्त परीक्षणों में Differential aptitude test (DAT) सर्वाधिक लोकप्रिय परीक्षण है, जिसका निर्माण सबसे पहले 1947 में अमेरिकन मनोवैज्ञानिक कारपोरेशन द्वारा किया गया है।
DAT का उपयोग आठवें वर्ग से लेकर बारहवें वर्ग के छात्रों के लिए किया जाता है। दूसरा संशोधन 1952 तथा 1963 ई. में किया गया। इस परीक्षण से निम्नलिखित आठ प्रकार की क्षमताओं का मापन किया जाता है।

1. शाब्दिक चिंतन परीक्षण (Verbal Reasoning test) – इसके माध्यम से शब्दों में निहित संप्रत्ययों को समझने की क्षमता का मापन किया जाता है। इससे रचनात्मक क्षमता का भी मापन किया जाता है।

2. संख्यात्मक अभिक्षमता परीक्षण (Numerical ability test) – इस जाँच के माध्यम से विद्यार्थियों में निहित संख्या या संख्याओं के आपसी संबंधों को समझने, संख्याओं की गणना एवं उसके बारे में चिंतन की क्षमता का मापन होता है।

3. अमूर्त चिंतन परीक्षण (Abstract Reasoning test) – कुछ व्यक्तियों में अमूर्त चिंतन की योग्यता अधिक होती है। इन क्षमताओं का मापन अमूर्त चिंतन परीक्षण से किया जाता है।

4. दैशिक संबंध परीक्षण (Space Relation test) – दैशिक संबंध परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति में निहित उस क्षमता का मापन होता है जिसके द्वारा वह यह बता सकता है कि किसी दिए हुए डायग्राम से किस प्रकार का चित्र बनेगा या कोई एक ही वस्तु को विभिन्न दिशाओं में घुमाया जाय तो किस प्रकार का दिखायी देगा। इस क्षमता की आवश्यकता ड्रेस डिजायनर तथा डेकोरेटर आदि में विशेष रूप से होती है।

5. यांत्रिक चिंतन परीक्षण (Mechanical Reasoning test) – यांत्रिक चिंतन परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति में निहित यांत्रिक क्षमताओं का पता चलता है, जिसकी आवश्यकता उद्योगों में सर्वाधिक है। इस प्रकार की क्षमता वाले लोग सफल इंजीनियर या कुशल उद्योगपति हो सकते हैं।

6. लिपिक गति और परिशुद्धता परीक्षण (Clerical speed and accuracy test) – यह एक ऐसी जाँच है जिसके माध्यम से व्यक्ति किसी शब्द या चित्र का प्रत्यक्षीकरण करने के पश्चात् होनेवाली सही अनुक्रिया का मापन करता है। इस प्रकार के क्षमता की आवश्यकता लिपिक कार्य या स्टेनोग्राफी आदि में सर्वाधिक होती है।

7. हिज्जे परीक्षण (Spelling test) – भाषा उपयोग परीक्षण के दो उप-परीक्षण है जिसमें हिज्जे परीक्षण पहला उप-भाग है, जिसके माध्यम से व्यक्ति में निहित शब्दों का सही-सही हिज्जे की क्षमता की माप की जाती है।

8. भाषा-वाक्य परीक्षण (Language-sentence test) – इस परीक्षण के माध्यम से भाषा का सही-सही उपयोग तथा वाक्यों का सही वैयाकरणिक अनुप्रयोग आदि की क्षमता का मापन किया जाता है।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि DAT के माध्यम से आठ विभिन्न प्रकार की अभिक्षमता का मापन किया जाता है, जिसके क्रियान्वयन से कुल मिलाकर तीन घण्टे छः मिनट का समय लगता है। इसका उपयोग सामूहिक एवं वैयक्तिक परीक्षण के रूप में किया जा सकता है।


Q.64. पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा अनुकूल व्यवहार को बढ़ाने की प्रविधियों का वर्णन करें।

Ans ⇒ पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा अनुकूल व्यवहार को बढ़ाने के लिए केवल भविष्यवाणी पर्याप्त नहीं है। बल्कि इसके विद्वेशक परिणामों के सम्बन्ध में जानकारी देकर विपरीत प्रभाव को नियंत्रण करने का प्रयास किया जा सकता है जो निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा की जा सकती है।

(a) चेतावनी – समयानुरूप आने वाले विषम परिस्थितियों की जानकारी देकर लोगों को चेतना वृद्धि किया जा सकता है जिससे लोग अवगत होकर उसके समाधान के प्रति तत्पर हो सके। यह कार्य विज्ञापन के द्वारा लोगों तक पहुँचाया जाता है। प्राकृतिक विपदाओं से सम्बन्धित घटनाओं को तूफान एवं
भविष्य में आने वाले समुद्री ज्वार तथा भूकम्प से बचने तथा निर्धारित क्षेत्र में न जाने की सुझाव दी जाती है।

(b) सुरक्षा उपाय – प्राकृतिक विपदाओं में कुछ ऐसे भी हैं जिनका संकेत दिये जाने पर इतना शीघ्रतापूर्वक आगमन होता है कि उनका नियंत्रण कर पाना संभव नहीं होता इसलिए इसके लिए चेतावनी देकर उन्हें मानसिक रूप से तैयार करने का कार्य किया जाता है इससे संबंधित सुझाव द्वारा समयानुरूप समायोजन में सहायता प्राप्त हो जाता है।

(c) मनोवैज्ञानिक विकारों का उपचार – मनावैज्ञानिक विकारों के उपचार में स्वावलंबन उपचार तथा व्यावसायिक उपचार दोनों उपस्थित होते हैं। लोगों में मुख्यतः भौतिक सहयोग जैसे-शरण आश्रय, भोजन, एवं वस्त्र वितीय सहायता प्राप्त करना अनिवार्य होता है जिसके लिए अनुभव एवं प्रोत्साहन होना आवश्यक होता है। प्रभाव स्वरूप इससे उसके सांवेगिक अवस्था का निवारण हो पाता है।

(d) आत्म सक्षमता – इसमें प्राणी को आत्मा विश्वास दृढ़ होता है वे स्वयं को बाहरी परिवेश में समर्थ मानते हैं परन्तु इन दशाओं की पूर्ति न हो सकने से तीव्र दबाव परिलक्षित हो जाता है और उन्हें मनोरोग उपचार की आवश्यकता पड़ती हैं प्रभाव स्वरूप लाभ अर्जन से सामुदायिक जीवन में समायोजन के गुण विकसित होता है।


Q.65. एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक के लिए सामान्य कौशलों का वर्णन करें।

Ans ⇒ मनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले कुछ छात्रों का उद्देश्य होता है एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनकर समाज एवं देश को सेवा प्रदान करना। कुशल मनोवैज्ञानिक बनने के लिए जो क्षेत्र आते हैं जिसकी शिक्षा और प्रशिक्षण करने के बाद व्यवसाय में आने के पहले जानना आवश्यक है। वे शिक्षकों,
अभ्यास करने वाले या शोध करने वाले सभी के लिए जरूरी है जो छात्रों से, व्यापार से, उद्योगों से और बृहत्तर समुदायों के साथ परामर्श की भूमिकाओं में होते हैं। यह माना जाता है कि मनोविज्ञान में सक्षमताओं को विकसित करना, उनको अमल में लाना और उनका मापन करना कठिन है, क्योंकि विशिष्ट पहचान और मूल्यांकन की कसौटियों पर आम सहमति नहीं बन पाई है।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा पहचानी गयी आधारभूत कौशल या सक्षमता जो एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनने के लिए आवश्यक है उसे तीन श्रेणियों में बाँटा गया है-(i) सामान्य कौशल (ii) प्रेक्षण कौशल तथा (iii) विशिष्ट कौशल।
सामान्य कौशल मलतःसामान्य स्वरूप के होते हैं। जिसकी आवश्यकता सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिकों को होती है चाहे वे किसी भी क्षेत्र के विशेष क्यों नहीं। खासकर सभी प्रकार के व्यवसायी मनोवैज्ञानिक जैसे-नैदानिक, स्वास्थ्य मनोविज्ञान, औद्योगिक, सामाजिक, पर्यावरणीय सलाहकार की भूमिका में रहने वालों के लिए यह कौशल आवश्यक है।
प्रेक्षण कौशल से तात्पर्य सूचनाओं को देखकर समझने से है। कोई मनोवैज्ञानिक चाहे वह शोध कर रहा हो या क्षेत्र में व्यवसाय कर रहा हो वह ज्यादातर समय सावधानीपूर्वक सुनने, ध्यान देने और प्रेक्षण करने का कार्य करता है। वह अपनी समस्त संवेदनाओं का उपयोग देखने, सुनने स्वाद लेने, स्पर्श करने या सूंघने में करता है।
विशिष्ट कौशल मनोविज्ञान के किसी क्षेत्र में विशेषता से है जैसे–नैदानिक स्थितियों में कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों के लिए यह आवश्यक है कि वह चिकित्सापरक तकनीकों, मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन एवं परामर्श में प्रशिक्षण प्राप्त करें।
इस प्रकार स्पष्ट है कि एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनने के लिए उपरोक्त तीनों कौशल में प्रवीण होना आवश्यक है। तभी वे सेवार्थी को अधिक-से-अधिक लाभ दे सकता हैं।


Q.66. प्रेक्षण का मूल्यांकन एक मनोवैज्ञानिक कौशल के रूप में करें।

Ans ⇒ मनोवैज्ञानिक चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हो वह अधिक-से-अधिक समय ध्यान से सुनने तथा प्रेक्षण कार्य करने में लगा देते हैं। मनोवैज्ञानिक अपनी संवेदनाओं का प्रयोग देखने, सुनने, स्वाद लेने या स्पर्श करने में लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनोवैज्ञानिक एक उपकरण है। जो अपने परिवेश के अन्तर्गत आनेवाली समस्त सूचनाओं का अवशोषण कर लेता है।
मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश के उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत शीक्त तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश में इन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत व्यक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। जिसके अन्तर्गत व्यक्ति की आय, लिंग, कद, उसका दूसरे से व्यवहार करने का तरीका आदि सम्मिलित होते हैं।
प्रेक्षण के दो प्रमुख कारण हैं –
(i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण
(ii) सहभागी प्रेक्षण।

(i) प्रकतिवादी प्रेक्षण – उस प्रेक्षण के माध्यम से हम यह सीखते हैं कि लोग अलग-अलग परिस्थितियों में किस प्रकार व्यवहार करते हैं। यह सबसे प्राथमिक तरीका है।

(ii) सहभागी प्रेक्षण – इस प्रेक्षण में प्रेक्षक प्रेक्षण की प्रक्रिया में एक सक्रिय सदस्य के रूप में संलग्न होता है अर्थात प्रेक्षक जो प्रेक्षण कर रहा है। वह खुद अपने ऊपर भी ऐसा प्रेक्षण कर सकता है।

मनोवैज्ञानिक सेवाओं की दशा में विशिष्ट कौशल एक मूल कौशल है। मुख्यतः विशिष्ट कौशल की आवश्कताएँ विशिष्ट व्यावसायिक कार्यों को करने में होती है। उदाहरणार्थ, नैदानिक परिस्थितियों में काम करने वाले मनोवैज्ञानिक को चिकित्सापरक तकनीक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन एवं परामर्श में पूर्ण रूप जानकारी प्राप्त होनी चाहिए। इसी प्रकार से संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक जो केवल संगठन के क्षेत्र में कार्य करते हैं। उन मनोवैज्ञानिकों को भी शोध, कौशलों के अतिरिक्त मूल्यांकन सुगमीकरण, परामर्श तथा व्यावहारपरक कौशलों की भी आवश्यकता होती है। जिसके परिणामस्वरूप वह व्यक्ति, संगठनों समूहों के विकास की प्रक्रिया को सरलता से जान लें। ये सभी कौशल आपस में एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। विशिष्ट कौशलों के अन्तर्गत सक्षमताओं के आधार पर उन्हें निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है-(i) मनोवैज्ञानिक परीक्षण कौशल (ii) साक्षात्कार कौशल (iii) परीक्षण कौशल (iv) परामर्श कौशल (v) सम्प्रेषण कौशल।


Q.67.चिन्ता विकृति के लक्षण एवं कारणों का वर्णन करें।

Ans ⇒ चिन्ता मनः स्नायुविकृति एक ऐसा मानसिक रोग है, जिसमें रोगी हमेशा अज्ञात कारणों से चिन्तित रहा करता है। सामान्य चिन्ता एक सामान्य, स्वाभाविक और सर्वसाधारण मानसिक जीवन में जटिल परिस्थितियों में यह अनिवार्य रूप से होता है। वर्तमान भयावह परिस्थिति से डरना या .. चिन्तित होना सामान्य अनुभव है। इसके लिए व्यक्ति डर की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जैसे-बाघ को । सामने आता देखकर व्यक्ति सामान्य चिंता के फलस्वरूप भयभीत होने या भागने की क्रिया करता है। व्यक्ति में ऐसी भयावह परिस्थिति की अवगति रहती है। उसी के संतुलन के लिए वह किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। सामान्य चिन्ता का संबंध वर्तमान भयावह परिस्थितियों से रहता है। लेकिन सामान्य चिन्ता से असामान्य चिन्ता पूर्णतः भिन्न है। इसमें व्यक्ति चिन्तित या भयभीत रहता है, लेकिन सामान्यः । चिन्ता के समाने उसकी चिन्ता का विषय नहीं रहता। उसकी अपनी चिन्ता का कारण ज्ञात नहीं रहता। उसकी चिन्ता पदार्थहीन होती है। अतः अपने विभिन्न शारीरिक उपद्रवों को व्यक्त करता है। वस्तुतः उसे अपने मानसिक उपद्रव का ज्ञान नहीं रहता। इसके अतिरिक्त उसकी चिन्ता का संबंध हमेशा भविष्यात से रहता है, वर्तमान से नहीं। इसलिए उसमें निराकरणात्मक सामान्य चिन्ता की तरह प्रतिक्रिया देखना में नहीं आती है, अतः हम कह सकते हैं कि सामान्य चिन्ता भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में असामान्य चिन्ता आन्तरिक भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में फिशर (Fisher) ने कहा-“सामान्य चिन्ता उन उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है जिसका परित्याग करने में व्यक्ति अयोग्य रहता है।” (Normal anxiety is areaction to an unapprochabl edifficults which the individual is unable to avoid.) जबकि असामान्य चिन्ता के संबंध में उनका विचार है कि ‘असामान्य चिन्ता उन आन्तरिक या व्यक्तिगत उलझी हई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है, जिसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं रहता।” (Neurotic anxiety is a reaction to an unapproachable inner or sub-jective difficult of which the individual has no idea.)
चिन्ता मनःस्नायु विकृति (Symptoms of anxiety neurosis)-चिन्ता मनःस्नायु विकृति में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के लक्षण देखे जाते हैं। मानसिक लक्षण में भय और आशंका की प्रधानता रहती है, जबकि शारीरिक लक्षण में हृदय गति, रक्तचाप, श्वास गति, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन देखे जाते हैं। उनका वर्णन निम्नलिखित हैं –

1. मानसिक लक्षण (Mental symptoms) – मानसिक लक्षणों में अतिरंजित भय और शंका की प्रधानता रहती है। यह अनिश्चित और विस्तृत होता है। इसका रोगी तर्कयुक्त प्रमाण नहीं कर सकता, किन्तु पूरे विश्वास के साथ जानता है कि उसका सोचना सही है। उसकी शंका किसी दुर्घटना से संबंध होती है। घर में आग लगने, महामारी फैलने, गाड़ी उलटने, दंगा होने या इसी प्रकार की अन्य घटनाओं के प्रति वह चिंतिन रहता है। वह हमेशा अनुभव करता है कि बहुत जल्द ही कुछ होनेवाला है। इस संबंध में अनेक काल्पनिक विचार उसके मन में आते रहते हैं। वह दिन-रात इसी विचार से परेशान रहता है उसमें उत्साह की कमी हो जाती है और मानसिक अंतर्द्वन्द्व बहुत अधिक हो जाता है। चिन्ता से या तो वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है या नींद लगने पर तुरन्त जाग जाता है। ऐसे रोगियों में मृत्यु, अपमान आदि भयावह स्वप्नों की प्रधानता रहती है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसका रोगी कभी-कभी आत्महत्या का भी प्रयास करता है।

2. शारारिक लक्षण (Physical symptoms) – चिन्ता मन:स्नाय विकति के रोगियों में शारीरिक लक्षण भी बड़ी उग्र होते हैं। रोगी के हृदय की गति. रक्तचाप, पाचन क्रिया आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। परे शरीर में दर्द का अनभव करता है। कभी-कभी चक्कर भी आता है। रोगी के शरार स अधिक पसीना निकलता है। वह बोलने में हलकाता है तथा बार-बार पेशाब करता है, उसे शारीरिक वजन घटता हुआ मालूम पड़ता है। यौन भाव की कमी हो जाती है। इसके रोगी तरह-तरह की आवाज सुनते हैं। कुछ लोगों को शिश्न छोआ होने का भय बना रहता है।
इस प्रकार के रोगियों में दो प्रकार की चिन्ता देखी जाती है-तात्कालिक चिन्ता तथा दीर्घकालिक चिन्ता। तात्कालिक चिन्ता रोगी में बहुत तीव्र तथा उग्र होती है। यह चिन्ता तुरन्त की होती है। इसमें रोगी चिल्लाता है तथा पछाड़ खाकर गिरता है। दीर्घकालिक चिन्ता पुरानी होती है। रोगी अज्ञात भावी दुर्घटनाओं के प्रति चिन्तित रहता है। वह निरंतर इस चिन्ता से बेचैन रहता है और त्रस्त रहता है। इस रोग का लक्षण के आधार पर ही विद्वानों ने दो भागों में विभाजित किया है-मुक्तिचारी चिन्ता तथा निश्चित चिन्ता। चिन्ता के कारण का अभाव नहीं रहने पर भी जब रोगी बराबर बेचैन रहता है तो उसे free floating anxiety कहते हैं, लेकिन जब रोगी किसी परिस्थिति विशेष से अपनी चिन्ता का संबंध स्थापित कर लेता है तो उसे bound anxiety कहा गया है प्रारंभ में रोगी में मुक्तिचारी चिन्ता ही रहता है, लेकिन क्रमशः स्थायी रूप धारण कर लेने पर उसे निश्चित चिन्ता बन जाती है।

चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारण (Etiology) – अन्य मानसिक रोगों की तरह चिन्ता मनःस्नायु विकति के कारणों को लेकर भी मनोवैज्ञानिकों में एकमत का अभाव है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो कारण बताये गये हैं, उनमें कुछ मुख्य निम्न हैं –

1. लैंगिक वासना का दमन (Repression of sexual desire) – सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने लैंगिक इच्छाओं के दमन को इस मानसिक रोग का कारण माना है। व्यक्ति में लैंगिक आवेग उत्पन्न होता है और यदि वह आवेग की पूर्ति में असफल हो जाता है, उसमें चिन्ता उत्पन्न होती है। यही इस रोग के लक्षणों को विकसित करती है। अत:स्रावित लैंगिक शक्ति को इस रोग का कारण माना जा सकता है। किसी पति की यौन सामर्थता या स्त्री में यौन उत्तेजना होने पर चलनात्मक स्राव नहीं होने से वह इस रोग से पीडित हो जाता है। इसी प्रकार पुरुष अपनी असमर्थता या स्त्री दोषी होने के कारण इस रोग से पीड़ित हो सकता है।
फ्रायड के उपर्युक्त मत से मनोवैज्ञानिक सहमत नहीं है। इस संबंध में गार्डेन का विचार है कि कामेच्छा का दमन और उसका प्रतिबंध ही इस रोग का कारण नहीं, बल्कि दो संवेगों के संघर्ष के फलस्वरूप इस रोग के लक्षण विकसित होते हैं। इस बात का मैकडूवल ने भी समर्थन किया है।

2. हीन भावना (Inferiority complex) – इस संबंध के फ्रायड के शिष्य एडलर ने भी अपना विचार व्यक्त किया है। उनका कहना है कि मनुष्य में आत्म प्रतिष्ठा की भावना प्रबल होती है, किन्तु बचपन में आश्वासन की शिथिलता के कारण जब व्यक्ति के Ego का समुचित रूप से विकास नहीं हो पाता है, तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहने लगता है। उसमें आत्म प्रतिष्ठा की भावना का दमन हो जाता है और व्यक्ति चिन्ता मनःस्नायु विकृति से पीड़ित हो जाता है।

3. मानसिक संघर्ष एवं निराशा (Mental conflict and frustration) – ओकेली का ऐसा मानना है कि इस रोग का कारण मानसिक संघर्ष एवं कुंठा है। इस संबंध में और भी मनोवैज्ञानिकों ने अपना अध्ययन किया है और ओकेली के मत का समर्थन किया है।
इस तरह हम देखते हैं कि चिन्ता मन:स्नायु विकृति के कारणों को लेकर सभी मनोवैज्ञानिक एक मत नहीं है। इस रोग के कारण के रूप में मुख्य रूप से लैंगिक वासना का दमन, हीनभावना तथा मानसिक संघर्ष एवं निराशा को माना जा सकता है।


Q.68. प्रेक्षण कौशल के दो प्रमुख उपागमों का वर्णन करें।

Ans ⇒ प्रक्षेपण के दो प्रमुख उपागम हैं –

(i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण
(ii) सहभागी प्रेक्षण।

(i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण – एक प्राथमिक तरीका है जिससे हम सीखते हैं कि लो भिन्न स्थिति में कैसे व्यवहार करते हैं। मान लजिए, कोई चाहता है कि जब कोई कंपनी अपनी उत्पाद की घोषणा करती है तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप लोग शॉपिंग मॉल जाने पर कैसा व्यवहार करते है। इसके लिए वह उस शॉपिंग मॉल में जा सकता है जहाँ इन छूट वाली वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। क्रमबद्ध ढंग से यह प्रेक्षण. कर सकता है। कि लोग खरीददारी के पहले या बाद में क्या कहते या करते हैं। उनके तुलनात्मक अध्ययन से वहाँ क्या हो रहा है, इसके बारे में रुचिकर सुझाव बना सकता है।

(ii) सहभागी प्रेक्षण – प्रकृतिवादी प्रेक्षण का ही एक प्रकार है। इसमें प्रेक्षक प्रेक्षण की प्रक्रिया में सक्रिय सदस्य के रूप में संलग्न होता है। इसके लिए वह स्थिति में स्वयं भी सम्मिलित हो सकता है जहाँ प्रेक्षण करना है। उदाहरण के लिए ऊपर दी गई समस्या में, प्रेक्षणकर्ता उसी शॉपिंग मॉल की दुकान में अंशकालिक नौकरी कर अंदर का व्यक्ति बनकर ग्राहकों के व्यवहार में विभिन्नताओं का प्रेक्षण कर सकता है। इस तकनीक या मानवशास्त्री बहुतायत से उपयोग करते हैं जिनका उद्देश्य होता है कि उस सामाजिक व्यवस्था का प्रथमतया दृष्टि से एक परिपेक्ष्य विकसित कर सके जो एक बाहरी व्यक्ति को सामान्यता उपलब्ध नहीं होता है।


Q.69.मनोवृत्ति को परिभाषित करें। इसके तत्वों की विशेषताओं का वर्णन करें।

Ans ⇒ समाज मनोविज्ञान में मनोवृत्ति की अनेक परिभाषाएँ दी गयी हैं। सचमुच में मनोवृत्ति भावात्मक तत्त्व (affective component), व्यवहारपरक तत्त्व (behavioural component) तथा संज्ञानात्मक तत्त्व (congnitive component) का एक तंत्र या संगठन (organization) होता है। इस तरह से मनोवृत्ति ए.बी.सी (a.b.c) तत्त्वों का एक संगठन होता है। इन तत्त्वों की व्याख्या इस प्रकार है –

(a) संज्ञानात्मक तत्त्व (Cognitive component) – संज्ञानात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति वस्तु के प्रति विश्वास (belief) से होता है।

(b) भावात्मक तत्त्व (Affective component) – भावात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में वस्त के प्रति सुखद या दु:खद भाव से होता है।

(c) व्यवहारपरक तत्त्व (Behavioural component) – व्यवहार परक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति के पक्ष तथा विपक्ष में क्रिया या व्यवहार करने से होता है।

मनोवृत्ति के इन तीनों तत्त्वों (components) की कुछ विशेषताएँ (characteristics) हैं जो इस प्रकार हैं।

(i) कर्षणशक्ति (Valence) – मनोवृत्ति के तीनों तत्त्वों में कर्षणशक्ति होता है। कर्षणशक्ति से तात्पर्य मनोवृत्ति की अनुकूलता (favourableness) तथा प्रतिकूलता (unfavourableness) की मात्रा से होता है। जैसे यदि कोई व्यक्ति सह शिक्षा (coeducation) को उत्तम समझता है, तो उसके मनोवनि के तत्वों की अनुकूलता स्वभावतः अधिक होगी।

(ii) बहुविधता (Multiflexity) – बहुविधता की विशेषता यह बतलाती है कि मनोवृत्ति के किसी तत्त्व में कितने कारक (factors) होते हैं। किसी तत्त्व में जितने अधिक कारक होंगे, उसमें जटिलता भी उतनी ही अधिक होगी। जैसे-सहशिक्षा के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति के संज्ञानात्मक तत्त्व में कई कारक सम्मिलित हो सकते हैं-सहशिक्षा किस स्तर से प्रारंभ होनी चाहिए, सहशिक्षा के क्या लाभ हैं, सहशिक्षा नगर में अधिक लाभप्रद होता है या शहर में आदि। बहुविधता को जटिलता (complexity) भी कहा जाता है।

(iii) त्यान्तकता (extremeness) – आत्यन्तिकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि व्यक्ति की मनोवृत्ति के तत्त्व कितने अधिक मात्रा में अनकल (favourable) या प्रतिकूल (unfavourable) है। जैसे अगर सहशिक्षा के प्रति मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति यदि कोई व्यक्ति 5-बिन्दु मापनी पर (पूर्ण सहमत, सहमत, तटस्थ, असहमत तथा पूर्णतः असहमत) पूर्णतः सहमत या पूर्णतः असहमत पर करता है तथा दूसरा व्यक्ति तटस्थ पर करता है तो यह कहा जाएगा कि पहले व्यक्ति की मनोवृत्ति दूसरे व्यक्ति को मनोवृत्ति से अधिक आन्यन्तिक (extremes) है।

(iv) केन्द्रित (centrality) – इससे तात्पर्य मनोवृत्ति की किसी खास तत्त्व के विशेष भूमिका से होता है। मनोवृत्ति के तीन तत्त्वों में कोई एक या दो तत्त्व अधिक प्रबल हो सकता है और तब वह अन्य दो तत्त्वों को भी अपनी ओर मोड़कर एक विशेष स्थिति उत्पन्न कर सकता है। जैसे, यदि किसी व्यक्ति को सहशिक्षा की गुणवत्ता में बहुत अधिक विश्वास है अर्थात् उसका संज्ञानात्मक तत्त्व प्रबल है तो अन्य दो तत्त्व भी इस प्रबलता के प्रभाव में आकर एक अनुकूल मनोवृत्ति के विकास में मदद करने लगेगा।
स्पष्ट हुआ कि मनोवृत्ति के तत्वों की कुछ अपनी विशेषता होती है। इन तत्त्वों की विशेषताओं पर मनोवृत्ति को अनुकूल या प्रतिकूल होना प्रत्यक्ष रूप से आधृत होता है।


Q.70. व्यक्तित्व अध्ययन के एब्राहम मैसलो का मानवतावादी सिद्धान्त का वर्णन करें।

Ans ⇒ एब्राहम मैसलो ने व्यक्तित्व के सर्वांगीण स्वरूप को स्पष्ट करने के उद्देश्य से अपने मानवतावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने व्यक्तित्व सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए स्वस्थ एवं सजीनात व्यक्तियों का अध्ययन किया। मैसलो ने मानवीय अभिप्रेरणा का सिद्धान्त प्रतिपादित कर व्यक्तित्व गत्यात्मकता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपने इस सिद्धान्त में आवश्यकताओं को पदानुक्रम में व्यवस्थित कर यह बताने का प्रयास किया है कि प्रत्येक व्यक्ति में उच्च स्तरीय आवश्यक को प्राप्त करने की सभावनाएँ रहता है। लेकिन व्यक्ति की उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की पूर्ति तभी संभव होता है जब निम्न स्तरीय आवयकताओं की पूर्ति हो जाती है।
मैसलो के अनुसार निम्नस्तरीय आवश्यकताओं में भूख, प्यास, सुरक्षा, सम्बन्धन तथा सम्मान आते हैं जबकि उच्च स्तरीय आवश्यकताओं में न्याय, अच्छाई, सुन्दरता तथा एकता आदि आते हैं। आवश्यकता की पूर्ति वास्तव में व्यक्ति के जीवन का चरम बिन्दु होता है। मैसलो ने इसे ही आत्मस्ति की आवश्यकता कहा है, जिसे आवश्यकता पदानुक्रम में सर्वोच्च आवश्यकता माना गया है। जब आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है और अलगाव, पीड़ा, उदासीन सनकीपन आदि से ग्रस्त हो जाता है।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि मैसलो का व्यक्तित्व सिद्धान्त अत्यधिक आशावादी, मानवतावादी एवं सर्वांगपूर्ण है। इसने व्यक्तित्व के स्वरूप का निरूपण करते हुए व्यक्ति पूर्णता के लिए आत्मसिद्धि को आवश्यक माना है।


Q.71. गार्डनर के द्वारा पहचान की गई बहु-बुद्धि की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।

Ans ⇒ गार्डनर ने बहु-बुद्धि का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार बुद्धि एक तत्त्व नहीं है बल्कि कई भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियों का अस्तित्व होता है। प्रत्येक बुद्धि एक-दूसरे से स्वतंत्र रहकर कार्य करती है। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी व्यक्ति में किसी एक बुद्धि की मात्रा अधिक है तो यह अनिवार्य रूप से इसका संकेत नहीं करता कि उस व्यक्ति में किसी अन्य प्रकार की बुद्धि अधिक होगी, कम होगी या कितनी होगी। गार्डनर ने यह भी बताया कि किसी समस्या का समाधान खोजने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियाँ आपस में अंत:क्रिया करते हुए साथ-साथ कार्य करती हैं। अपने-अपने क्षेत्रों में असाधारण योग्यताओं का प्रदर्शन करने वाले अत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्तियों के आधार पर गार्डनर ने बुद्धि को आठ प्रकार में विभाजित किया।

ये आठ प्रकार की बुद्धि इस प्रकार से हैं –

(i) भाषागत (Linguistic) – यह अपने विचारों को प्रकट करने तथा दूसरे व्यक्तियों के विचारों को समझने हेतु प्रवाह तथा नम्यता के साथ भाषा का उपयोग करने की क्षमता है। जिन व्यक्तियों में यह बुद्धि अधिक होती है वे ‘शब्द-कुशल’ होते हैं। ऐसे व्यक्ति शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थों के प्रति संवेदनशील होते हैं, अपने मन में भाषा के बिंबों का निर्माण कर सकते हैं और स्पष्ट तथा परिशुद्ध भाषा का उपयोग करते हैं। लेखकों तथा कवियों में यह बुद्धि अधिक मात्रा में होती है।

(ii) तार्किक-गणितीय (Logical & mathematical) – इस प्रकार की बुद्धि की अधिक मात्रा रखने वाले व्यक्ति तार्किक तथा आलोचनात्मक चिंतन कर सकते हैं। वे अमूर्त तर्कना कर लेते हैं और गणितीय समस्याओं के हल के लिए प्रतीकों का प्रहस्तन अच्छी प्रकार से कर लेते हैं। वैज्ञानिकों तथा नोबेल पुरस्कार विजेताओं में इस प्रकार की बुद्धि अधिक पाई जाने की संभावना रहती है।

(iii) देशिक (Spatial) – यह मानसिक बिंबों को बनाने, उनका उपयोग करने तथा उनमें मानसिक धरातल पर परिमार्जन करने की योग्यता है। इस बुद्धि को अधिक मात्रा में रखने वाला व्यक्ति सरलता से देशिक सूचनाओं को अपने मस्तिष्क में रख सकता है। विमान-चालक, नाविक, मूर्तिकार, चित्रकार, वास्तुकार, आंतरिक साज-सज्जा के विशेषज्ञ, शल्य-चिकित्सा आदि में इस बुद्धि के अधिक पाए जाने की संभावना होती है।

(iv) संगीतात्मक (Musical) – सांगीतिक अभिरचनाओं को उत्पन्न करने, उनका सर्जन तथा प्रहस्तन करने की क्षमता सांगीतिक योग्यता कहलाती है। इस बुद्धि की उच्च मात्रा रखने वाले लोग ध्वनियों, स्पंदनों तथा ध्वनियों की नई अभिरचनाओं के सर्जन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। .

(v) शारीरिक-गतिसंवेदी (bodily-kinesthetic) – किसी वस्तु अथवा उत्पाद के निर्माण के लिए अथवा मात्र शारीरिक प्रदर्शन के लिए संपूर्ण शरीर अथवा उसके किसी एक अथवा एक से अधिक अंग की लोच तथा पेशीय कौशल की योग्यता शारीरिक गतिसंवेदी योग्यला कही जाती है। धावकों, नर्तकों, अभिनेताओं/अभिनेत्रियों, खिलाड़ियों, जिमनास्टों तथा शल्य चिकित्सकों में इस बुद्धि की अधिक मात्रा पाई जाती है।

(vi) अंतर्वयक्तिक (Interpersonal) – इस योग्यता द्वारा व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की अभिप्रेरणाओं या उद्देश्यों, भावनाओं तथा व्यवहारों का सही बोध करते हुए उनके साथ मधुर संबंध स्थापित करता है। मनोवैज्ञानिक, परामर्शदाता, राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता तथा धार्मिक नेता आदि में उच्च अंतवैयक्तिक बुद्धि पाए जाने की संभावना होती है।

(vii) अंत:व्यक्ति (Interperson) – इस योग्यता के अंतर्गत व्यक्ति को अपनी शक्ति तथा कमजोरियों का ज्ञान और उस ज्ञान का दूसरे व्यक्तियों के साथ सामाजिक अंत:क्रिया में उपयोग करने का ऐसा कौशल सम्मिलित है जिससे वह अन्य व्यक्तियों से प्रभावी संबंध स्थापित करता है। इस बुद्धि की अधिक मात्रा रखने वाले व्यक्ति अपनी अनन्यता या पहचान, मानव अस्तित्व और जीवन के अर्थों को समझने में अति संवेदनशील होते हैं। दार्शनिक तथा आध्यात्मिक नेता आदि में इस प्रकार की उच्च बुद्धि देखी जा सकती है।

(viii) प्रकृतिवादी (Naturalistic) – इस बुद्धि का तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण से हमारे संबंधों की पूर्ण अभिज्ञता से है। विभिन्न पशु-पक्षियों तथा वनस्पतियों के सौंदर्य का बोध करने में तथा प्राकृतिक पर्यावरण में सूक्ष्म विभेद करने में यह बुद्धि सहायक होती है। शिकारी, किसान, पर्यटक, वनस्पति-विज्ञानी, प्राणीविज्ञानी और पक्षीविज्ञानी आदि में प्रकृतिवादी बुद्धि अधिक मात्रा में होती है।


Q.72. ‘अभिक्षमता’ अभिरुचि और बुद्धि से कैसे भिन्न है ? अभिक्षमता का मापन कैसे किया जाता है ?

Ans ⇒ अभिक्षमता क्रियाओं के किसी विशेष क्षेत्र की विशेष योग्यता को कहते हैं। अभिक्षमता विशेषताओं का ऐसा संयोजन है जो व्यक्ति द्वारा प्रशिक्षण के उपरांत किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथवा कौशल के अर्जन की क्षमता को प्रदर्शित करता है। अभिक्षमताओं का मापन कुछ विशिष्ट परीक्षणों द्वारा किया जाता है। किसी व्यक्ति की अभिक्षमता के मापन से इसमें उसके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले निष्पादन का पूर्वकथन करने में सहायता मिलती है।
बुद्धि का मापन करने की प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिकों को यह ज्ञान होता है कि समाज बुद्धि रखने वाले व्यक्ति भी किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथवा कौशलों को भिन्न-भिन्न रक्षता के साथ अर्जित करते हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट योग्यताएँ तथा कौशल ही अभिक्षमताएँ कहलाती हैं। उचित प्रशिक्षण देकर उन योग्यताओं में पर्याप्त अभिवृद्धि की जा सकती है।
किसी विशेष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में अभिक्षमता के साथ-साथ अभिरुचि (Interest) का होना भी आवश्यक है। अभिरुचि किसी विशेष कार्य को करने की वरीयता या तरजीह को कहते हैं जबकि अभिक्षमता उस कार्य को करने की संभाव्यता या विभवता को कहते हैं। किसी व्यक्ति में किसी कार्य को करने की अभिरुचि हो सकती है परन्तु हो सकता है कि उसे करने की अभिक्षमता उसमें न हो। इसी प्रकार यह भी संभव है कि किसी व्यक्ति में किसी कार्य को करने की अभिक्षमता हो परंतु उसमें उसकी अभिरुचि न हो। उन दोनों ही दशाओं में उसका निष्पादन संतोषजनक नहीं होगा। एक ऐसे विद्यार्थी की सफल यांत्रिक अभियंता बनने की अधिक संभावना है जिसमें उच्च यांत्रिक अभिक्षमता हो और अभियांत्रिकी में उसकी अभिरुचि भी हो।
अभिक्षमता परीक्षण दो रूपों में प्राप्त होते हैं-स्वतंत्र (विशेषीकृत) : अभिक्षमता परीक्षण तथा बहल (सामान्यीकृत) अभिक्षमता परीक्षण। लिपिकीय अभिक्षमता, यांत्रिक अभिक्षमता, आकिक अभिक्षमता तथा टंकण अभिक्षमता आदि के परीक्षण स्वतंत्र अभिक्षमता परीक्षण है। बहुल अभिक्षमता परीक्षणों में एक परीक्षणमाला होती है जिससे अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार की परंतु समजातीय क्षेत्रों में अभिक्षमता का मापन किया जाता है। विभेदन अभिक्षमता परीक्षण (डी० ए० टी०), सामान्य अभिक्षमता परीक्षणमाला (जी० ए० टी० बी०) तथा आर्ड सर्विसेस व्यावसायिक अभिक्षमता परीक्षणमाला (ए० एस० बी० ए० बी०) आदि प्रसिद्ध अभिक्षमता परीक्षण मालाएँ हैं। इनमें से शैक्षिक पर्यावरण में विभेदक अभिक्षमता परीक्षण का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। इस परीक्षण में 8 स्वतंत्र उप परीक्षण हैं। ये हैं -(i) शब्द तर्कना। (ii) आंकिक तर्कना। (iii) अमूर्त तर्कना।(iv) लिपिकीय गति एवं परिशुद्धता। (v) यांत्रिक तर्कना। (vi)” देशिक या स्थानिक संबंध। (vii) वर्तनी। (viii) भाषा का उपयोग।


Q.73.आत्म-सम्मान से आपका क्या तात्पर्य है ? आत्म-सम्मान का हमारे दैनिक जीवन के व्यवहारों से किस प्रकार संबंधित है ? वर्णन कीजिए।

Ans ⇒ आत्म-सम्मान हमारे आत्म का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। व्यक्ति के रूप में हम सदैव अपने मल्य या मान और अपनी योग्यता के बारे में निर्णय का आकलन करते रहते हैं। व्यक्ति का अपने बार में यह मूल्य-निर्णय ही आत्म-सम्मान कहा जाता है। कुछ लोगों में आत्म-सम्मान उच्च स्तर का जबकि कुछ अन्य लोगों में आत्म-सम्मान निम्न स्तर का पाया जाता है। किसी व्यक्ति के आत्म-सम्मान का मूल्यांकन करने के लिए व्यक्ति के समक्ष विविध प्रकार के कथन प्रस्तुत किये जाते हैं और उसके संदर्भ में सही है, यह बताइए। उदाहरण के लिए, किसी बालक/बालिका से ये पूछा जा सकता है कि “मैं गृह कार्य करने में अच्छा हूँ” अथवा “मुझे अक्सर विभिन्न खेलों में भाग लेने के लिए चुना जाता है” अथवा “मेरे सहपाठियों द्वारा मुझे बहुत पसंद किया जाता है” जैसे कथन उसके संदर्भ में किस सीमा तक सही हैं। यदि बालक/बालिका यह बताता/बताती है कि ये कथन उसके संदर्भ में सही है तो उसका आत्म-सम्मान उस दूसरे बालक/बालिका की तुलना में अधिक होगा जो यह बताता/बताती है कि यह कथन उसके बारे में सही नहीं हैं।
छ: से सात वर्ष तक के बच्चों में आत्म-सम्मान चार क्षेत्रों में निर्मित हो जाता है-शैक्षिक क्षमता, सामाजिक क्षमता, शारीरिक/खेलकूद संबंधी क्षमता और शारीरिक रूप जो आयु के बढ़ने के साथ-साथ और अधिक परिष्कृत होता जाता है। अपनी स्थिर प्रवृत्तियों के रूप में अपने प्रति धारणा बनाने की क्षमता हमें भिन्न-भिन्न आत्म-मूल्यांकनों को जोड़कर अपने बारे में एक सामान्य मनोवैज्ञानिक प्रतिमा निर्मित करने का अवसर प्रदान करती है। इसी को हम आत्म-सम्मान की समग्र भावना के रूप में जानते हैं।
आत्म-सम्मान हमारे दैनिक जीवन के व्यवहारों से अपना घनिष्ठ संबंध प्रदर्शित करता है। उदाहरण के लिए जिन बच्चों में उच्च शैक्षिक आत्म-सम्मान होता है उनका निष्पादन विद्यालयों में निम्न आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में अधिक सम्मान होता है और जिन बच्चों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है उनको जिन बच्चों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है उनको निम्न सामाजिक आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में सहपाठियों द्वारा अधिक पसंद किया जाता है। दूसरी तरफ. जिन बच्चों में सभी क्षेत्रों में निम्न आत्म-सम्मान होता है उनमें दश्चिता. अवसाद और समाजविरोधी व्यवहार पाया जाता है। अध्ययनों द्वारा प्रदर्शित किया गया है कि जिन माता-पिता द्वारा स्नेह के साथ सकारात्मक ढंग से बच्चों का पालन-पोषण किया गया है ऐसे बालकों में उच्च आत्म-सम्मान विकसित होता है। क्योंकि ऐसा होने पर बच्चों द्वारा सहायता न माँगने पर भी यदि उनके निर्णय स्वयं लेते हैं तो ऐसे बच्चों में निम्न आत्म-सम्मान पाया जाता है।


Q.74.व्यक्तित्व के मानवतावादी उपागम की प्रमुख प्रतिज्ञप्ति क्या है ? आत्मसिद्धि से मैस्लो का क्या तात्पर्य था ?

Ans ⇒ मानवतावादी सिद्धांत मुख्यतः फ्रायड के सिद्धांत के प्रत्युत्तर में विकसित हए। व्यक्तित्व के संदर्भ में मानवतावादी परिप्रेक्ष्य के विकास में कार्य रोजर्स और अब्राहम मैस्लो ने विशेष रूप से योगदान किया है। रोजर्स द्वारा प्रस्तावित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचार एक पूर्णतः प्रकार्यशील व्यक्ति का है। उनका विश्वास है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए संतुष्टि अभिप्रेरक शक्ति है। लोग अपनी क्षमताओं, संभाव्यताओं और प्रतिभाओं को संभव सर्वोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं। व्यक्तियों में एक सहज प्रवृत्ति होती है जो उन्हें अपने वंशागत प्रकृति की सिद्धि या प्राप्ति के लिए निर्दिष्ट करती है।
मानव व्यवहार के बारे में रोजर्स ने दो आधारभूत अभिग्रह निर्मित किए हैं। एक यह कि व्यवहार लक्ष्योन्मुख और सार्थक होता है और दूसरा यह कि लोग (जो सहज रूप से अच्छे होते हैं) सदैव अनुकूली तथा आत्मसिद्धि वाले व्यवहार का चयन करेंगे।
रोजर्स का सिद्धांत उनके निदानशाला में रोगियों को सुनते हुए प्राप्त अनुभवों से विकसित हुआ है। उन्होंने यह ध्यान दिया कि उनके सेवार्थियों के अनुभव में आत्म एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व था। इस प्रकार, उनका सिद्धांत आत्म के संप्रत्यय के चतुर्दिक संरचित है । उनके सिद्धांत का अभिग्रह है कि लोग सतत अपने वास्तविक आत्म की सिद्धि या प्राप्ति की प्रक्रिया में लगे रहते हैं।
रोजर्स ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास आदर्श अहं या आत्म का एक संप्रत्यय होता है। एक आदर्श आत्म वह आत्म होता है जो कि एक व्यक्ति बनना अथवा होना चाहता है। जब वास्तविक आत्म और आदर्श आत्म के बीच समरूपता होती है तो व्यक्ति सामान्यतया प्रसन्न रहता है, किन्तु दोनों प्रकार के आत्म के बीच विसंगति के कारण प्राय: अप्रसन्नता और असंतोष की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। रोजर्स का एक आधारभूत सिद्धांत है कि लोगों में आत्मसिद्धि के माध्यम से आत्म-संप्रत्यय को अधि कतम सीमा तक विकसित करने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रक्रिया में आत्म विकसित, विस्तारित और अधिक सामाजिक हो जाता है।
रोजर्स व्यक्तित्व-विकास को एक सतत् प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। इसमें अपने आपका मूल्यांकन करने का अधिगम और आत्मसिद्धि की प्रक्रिया में प्रवीणता सन्निहित होती है। आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भूमिका को उन्होंने स्वीकार किया है। जब सामाजिक दशाएँ अनुकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान उच्च होता है। इसके विपरीत, जब सामाजिक दशाएँ प्रतिकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान निम्न होता है। उच्च आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान रखने वाले लोग सामान्यता नम्य एवं नए अनुभवों के प्रति मुक्त भाव से ग्रहणशील होते हैं ताकि वे अपने सतत् विकास और आत्मसिद्धि में लगे रह सकें।
मैस्लो ने आत्मसिद्धि की लब्धि या प्राप्ति के रूप में मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ लोगों की एक विस्तृत व्याख्या दी है। आत्मसिद्धि वह अवस्था होती है जिसमें लोग अपनी संपूर्ण संभाव्यताओं को विकसित कर चुके होते हैं। मैस्लो ने मनुष्यों का एक आशावादी और सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित किया है जिसके अंतर्गत मानव में प्रेम, हर्ष और सर्जनात्मक कार्यों को करने की आत्मसिद्धि को प्राप्त करने में स्वतंत्र माने गए हैं। अभिप्रेरणाओं, जो हमारे जीवन को नियमित करती हैं, के विश्लेषण के द्वारा आत्मसिद्धि को संभव बनाया जा सकता है हम जानते हैं कि जैविक सुरक्षा और आत्मीयता की आवश्यकताएँ (उत्तरजीविता आवश्यकताएँ) पशुओं और मनुष्यों दोनों में पाई जाती हैं। अतएव किसी व्यक्ति का मात्र पुनः आवश्यकताओं की संतुष्टि में संलग्न होना उसे पशुओं के स्तर पर ले आता है। मानव जीवन की वास्तविक यात्रा आत्म-सम्मान और आत्मसिद्धि जैसी आवश्यकताओं के अनुसरण से
आरंभ होती है। मानवतावादी उपागम जीवन के सकारात्मक पक्षों के महत्त्व पर बल देता है।


S.N  Class 12th Psychology ( लघु उत्तरीय प्रश्न )
1. Psychology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 1
2. Psychology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2
3. Psychology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3
4. Psychology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
5. Psychology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5
6. Psychology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 6
S.N  Class 12th Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
1. Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 1
2. Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 2
3. Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 3
4. Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 4
5. Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 5
6. Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 6
7. Psychology ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART – 7
You might also like