Class 12th Political Science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3


Q.21. संक्षेप में गैर-सरकारी संगठनों की मजदूर कल्याण स्वास्थ शिक्षा नागरिक अधिकार, नारी उत्पीड़न तथा पर्यावरण से संबंधित उनके पहलुओं की भूमिका का उल्लेख कीजिए।

Ans ⇒  भारत में सरकार के साथ-साथ गैर-सरकारी संगठन भी विभिन्न सामाजिक समस्याओं से जुड़े मामलों को उठाते रहे हैं। ये मामले. मजदूर, पर्यावरण, महिला कल्याण आदि मामलों के साथ जुड़े हुए रहे हैं। भारत में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका मजदूरों के कल्याण, स्वास्थ्य के विकास, शिक्षा के प्रसार और नागरिकों के अधिकारों के रक्षण, नारी उत्पीड़न की समाप्ति, कृषि के विकास, वृक्षारोपण आदि के क्षेत्र में व्यापक रूप में रही है। गैर-सरकारी संगठनों में -(a) अंतर्राष्ट्रीय चेंबर ऑफ कॉमर्स, (b) रेडक्रॉस सोसाइटी, (c) एमनेस्टी इंटरनेशनल, (d) मानवाधिकार आयोग आदि संगठन विश्व स्तर पर सभी देशों में फैले हुए हैं। इन गैर-सरकारी संगठनों ने निम्नलिखित क्षेत्र में अपनी भूमिका द्वारा निम्नलिखित विकास किया –

1. इन गैर-सरकारी संगठनों ने मानव जाति के अधिकारों की रक्षा की। विश्व के विभिन्न देशों में इनकी स्थापित शाखाएँ विभिन्न सरकारों द्वारा मानव अधिकारों की रक्षा करवाती हैं।

2. इन गैर-सरकारी संगठनों ने विभिन्न देशों में वृक्षारोपण में सहयोग दिया।

3. इन गैर-सरकारी संगठनों ने रोजगारोन्मुख योजना चलाकर मजदूरों को विभिन्न कार्यों का प्रशिक्षण दिया।

4. ये गैर-सरकारी संगठन स्वास्थ्य के क्षेत्र में दवा छिड़काव, टीकाकरण, विभिन्न प्रकार की दवाओं के वितरण और बीमारियों की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।,

5. इन गैर-सरकारी संगठनों ने कृषि के क्षेत्र में उन्नति के लिए सरकारों से निवेदन कर विकासात्मक कार्य करवाया। खाद, बीज आदि की व्यवस्था में योगदान दिया।

6. विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों ने बच्चों की शिक्षा के लिए शिक्षण कार्य किया एवं सामग्रियाँ वितरित की। इस तरह गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका मानव जाति के विकास और समस्याओं के समाधान में व्यापक रूप से हो रही है।


Q.22. अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं ?

Ans ⇒  अनुच्छेद 340 में कहा गया है कि सरकार अन्य पिछड़ी जाति के लिए आयोग नियक्त कर सकती है। पहली बार 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में इस प्रकार का आयोग नियुक्त किया गया। इस आयोग ने 2399 जातियों को पिछडी जातियों में सम्मिलित किया। 1978 में वी. वी. मंडल की अध्यक्षता में इस आयोग ने 3743 प्रजातियों को पिछड़ी जाति में शामिल करने की सिफारिश की। कमीशन ने 27 प्रतिशत नौकरियाँ अन्य पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित की।
1998-99 से निम्न कार्यक्रम अन्य पिछड़े वर्ग के लिए शुरू किया गया।
1. परीक्षा पूर्व कोचिंग अन्य पिछड़े वर्ग के उन लोगों के बच्चों के लिए जिनकी आय एक लाख रु. से कम हो।
2. अन्य पिछड़े वर्ग के लड़के-लड़कियों के लिए हॉस्टल।
3. प्री-मैट्रिक छात्रवृतियाँ। 4. पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृतियाँ।
5. सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक दशा सुधारने के लिए कार्यरत स्वैच्छिक संगठनों की सहायता करना।


Q.23. भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रही विभिन्न योजनाओं का परीक्षण कीजिए।

Ans ⇒  भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए निम्नलिखित विशेष योजनाएँ चलाई गई हैं –
(i) शिक्षा के क्षेत्र में सभी राज्यों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उच्च स्तर तक शिक्षा निःशुल्क कर दी गई है। विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में इनके लिए स्थान आरक्षित किए गए हैं।

(ii) तृतीय पंचवर्षीय योजना में छात्राओं के लिए छात्रावास योजना प्रारंभ की गई। नौकरियों में आरक्षण के अतिरिक्त रोजगार दिलाने में सहायक प्रशिक्षण एवं निपुणता बढ़ाने वाले कई कार्यक्रम भी प्रारंभ किए गए हैं।

(iii) 1987 में भारत के जनजातीय सहकारी बाजार विकास संघ की स्थापना की गई। 1992-93 में जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की गई। 1997-2002 की नौंवी योजना अवधि में ‘आदिम जनजाति समूह’ के विकास के लिए अलग कार्य योजना की व्यवस्था की गई।

(iv) मार्च 1992 में बाब साहब अंबेडकर संस्था की स्थापना की गई। इन सबके अतिरिक्त इस समय 194 जनजातीय विकास योजनाएँ चल रही हैं। कुछ राज्यों द्वारा शोध, शिक्षा, प्रशिक्षण, गोष्ठी, कार्यशाला, व्यावासयिक निवेश, जनजातीय शोध संस्थानों की स्थापना, जनजातीय साहित्य का प्रकाशन
आदि के कार्यक्रम चलाए गए हैं।


Q.24. भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू ने किन लर्कों का इस्तेमाल किया। क्या आपको लगता है कि ये केवल भावनात्मक और नैतिक तर्क हैं अथवा इनमें कोई तर्क युक्तिपरक भी है ?

Ans ⇒  (i) नेहरू जी ने यह तर्क दिया कि भारत ऐतिहासिक और स्वाभाविक रूप में एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है। प्राचीन काल में ही भारत में समय-समय पर विभिन्न निरभाषिक समूह और जनसमूह विभिन्न रूपों और उद्देश्यों के लिए आते रहें इस संबंध में नेहरू ने यह तर्क दिया। नेहरू जी के शब्दों में भारत केवल एक भौगोलिक अभिव्यक्ति नहीं है परंतु भारत का मस्तिष्क ही कुछ ऐसा है जो विदेशी प्रभावों को आमंत्रित करता है और इन प्रभावों की अच्छाइयों को एक सुसंगत तथा मिश्रित बपौती (heritage) में संश्लेषण कर लेता है। भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश में, विभिन्नता में एकता जैसे सिद्धान्त को नहीं उत्पन्न किया गया है क्योंकि यहाँ हजारों वर्षों से एक सभ्य सिद्धांत बन गया है, और यही भारतीय राष्टवाद का आधार है। इस विभिन्नता के प्रति न डगमगान वाल समर्पण को निकाल देने से भारत की आत्मा ही गायब हो जाएगी। स्वतंत्रता संग्राम ने इसी सभ्यता के सिद्धांत को एक राष्ट्र की व्यावहारिक राजनीति में निर्मित करने के लिए उपयोग किया।

(ii) नेहरू जी ने देश की आजादी से पहले और संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान भी इस बात की और बल दिया कि भारत की एकता और अखंडता तभी चिरस्थाई रह सकती है जबकि अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकार, धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता एक धर्म निरपेक्ष राज्य का वातावरण और पुनर्विश्वास सदैव प्राप्त हों वह ये मानते थे कि हम अनेक कारणों से राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने में जो सफल हुए हैं उसका कारण भारत के स्वभाव में धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक भाषाई और धार्मिक समुदायों की पहचान को बचाने में कामयाब रहे। भारत विश्व को कुटम्ब समझता रहा है इस संदर्भ में उनके कुछ तर्क निम्नलिखित पंक्तियों में दिए जा रहे हैं –
“अनेक कारणों की वजह से हम इस भव्य तथा विभिन्नता से भरपूर देश को एकता के सूत्र में बाँधे रखने में सफल हुए हैं। उनमें से मुख्य हमारे संवैधानिक निर्माण तथा उनके अनुकरण करने वाले महान नेताओं की बुद्धिमता तथा दूरदर्शिता है। यह बात कम महत्त्व की नहीं है कि भारतीय स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष हैं और हर विश्वासों का अपने दिल से आदर करते हैं। भारतवासियों की भाषाई तथा धार्मिक पहचान चाहे कुछ भी हो, वे कभी भी भाषाई तथा सांस्कृतिक एकरूपता रूपी एक नीरस कठोर व्यवस्था को उन पर थोपने के लिए प्रयत्न नहीं करते। हमारे लोग इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि जब तक हमारी विविधता सुरक्षित है, हमारी एकता भी सुरक्षित है। हजारों वर्ष पूर्व हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह उद्घोषित किया था कि यह संसार कुटम्ब है।”
भारत के धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाए रखने के लिए 15 अक्टूबर 1947 को जो देश के विभिन्न प्रांतों के मुख्य मंत्रियों को पत्र लिखा था उसमें उन्होंने यह तर्क दिया कि मुसलमानों की संख्या इतनी ज्यादा है पर चाहें तो वह दूसरे देशों में नहीं जा सकते वस्तुत: उनका यह तर्क भावनात्मक और नौतिक तर्क होते हुए भी किसी हद तक युक्तियाँ भी है। 2001 की जनगणना के अनुसार मुसलमानों की आबादी (अन्य सभी सम्प्रदायों की भांति) आजादी के वक्त से करोड़ों में बढ़ गई है। उनका इस संदर्भ में कथन नीचे प्रस्तुत है
“भारत में मुसलमान अल्पसंख्यकों की संख्या इतनी ज्यादा है कि वे चाहें तब भी यहाँ से कहीं और नहीं जा सकते। यह एक बुनियादी तथ्य या सच्चाई है और इस पर कोई अँगुली नहीं उठाई जा सकती। पाकिस्तान चाहे जितना उकसावा दे या वहाँ के गैर-मुसलमानों को अपमान और भय के चाहे जितने भी छुट पीने पड़े हमें अपने अल्पसंख्यकों के साथ सभ्यता और शालीनता के साथ पेश आना है।”
लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में हमें उन्हें नागरिक के अधिकार देने होंगे और उनकी रक्षा करनी होगी। अगर हम ऐसा करने में कामयाब नहीं होते तो यह एक नासूर बन जाएगा जो पूरी राज व्यवस्था में जहर फैलाएगा और शायद उसको तबाह भी कर दे। जवाहर लाल नेहरू, मुख्यमंत्रियों को एक पत्र में, 15 अक्तूबर 1947 ।


Q.25. महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में संसद और राज्य विधान सभाओं में सीटें आरक्षित करने की मांग का परीक्षण कीजिए।

Ans ⇒  किसी भी देश के संपूर्ण विकास के लिए सभी क्षेत्रों में स्त्रियों और पुरुषों की अधिकतम भागीदारी होनी चाहिए। पुरुष और महिलाएँ दोनों ही कंधे से कंधे मिलाकर एक सुखी और सुव्यवस्थित निजी पारिवारिक और सामाजिक जीवन व्यतीत करें। हमारे देश में जनसंख्या के लगभग आधे हिस्से की क्षमता का कम उपयोग सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए एक गंभीर बाधा है। 1952 से 1999 तक संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम रहा है।
महिला आंदोलन चुनावी संस्थाओं में महिलाओं के आरक्षण के लिए संघर्ष करता रहा है। 73वें और 74वें संशोधन के द्वारा महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिकाओं एवं न में 33 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त हआ है। इस आदोलन को केवल आशिक सफलता मिली है। संसद और राज्य विधान सभाओं में ही आरक्षण के लिए संघर्ष जारी है लेकिन जहाँ लगभग सभी राजनीतिक दल खुले तौर पर इस माँग का समर्थन करते हैं वहीं जब यह विधेयक संसद के समक्ष पेश होता है तो किसी न किसी प्रकार से पारित नहीं होने दिया जाता है।


Q.26. नक्सलवादी आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।

Ans ⇒  1. नक्सलवादी आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical background of Naxalists Movement) – पश्चिम बंगाल के पर्वतीय जिले दार्जिलिंग के नक्सलवादी पुलिस थाने के इलाके में 1967 में एक किसान विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस विद्रोह की अगुआई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय कैडर के लोग कर रहे थे। नक्सलवादी पुलिस थाने से शुरू होने वाला यह आंदोलन भारत के कई राज्यों में फैल गया। इस आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन के रूप में जाना जाता है।

2. सी. पी. आई. से अलग होना और गरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाना (To be seperated from CPM and adopt guerilla Warfare streteedv) – 1969 में नक्सलवादी सी० पी० आई० (एम) से अलग हो गए और उन्होंने सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नाम से एक नई
पार्टी चारु मजदूमदार के नेतृत्व में बनायी। इस पार्टी की दलील थी कि भारत में लोकतंत्र एक
छलावा है। इस पार्टी ने क्रांति करने के लिए गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनायी।

3. कार्यक्रम(Programme) – नक्सलवादी आंदोलन ने धनी भूस्वामियों से जमीन बलपूर्वक छीनकर गरीब और भूमिहीन लोगों को दी। इस आंदोलन के समर्थक अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हिंसक साधनों के इस्तेमाल के पक्ष में दलील देते थे।

4. नक्सलवाद का प्रसार और प्रभाव (Spread and Impact.of Naxalism) – 1970 के दशक वर्षों में 9 राज्यों के लगभग 75 जिले नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित हैं। इनमें अधिकतर बहुत पिछड़े इलाके हैं यहाँ आदिवासियों की जनसंख्या ज्यादा है। इन इलाकों के नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर अनेक फिल्में भी बनी हैं। उपन्यास पर आधारित ‘हजार चौरासी की माँ’ ऐसी ही में बँटाई या पट्टे पर खेतीबाड़ी करने वाले तथा छोटे किसान ऊपज में हिस्से, पट्टे की सुनिश्चित कामकाजी महिलाओं वाले परिवार में दहेज की प्रथा का चलन कम है।

5. नक्सलवादी आंदोलन और काँग्रेस सरकार(Naxalists Movement and Congress Government) – (क) 1969 में काँग्रेस शासित पश्चिम बंगाल सरकार ने निरोधक नजरबंदी समेत कई कड़े कदम उठाए, लेकिन नक्सलवादी आंदोलन रुक न सका। बाद के सालों में य कई अन्य भागों में फैल गया। नक्सलवादी आंदोलन अब कई दलों और संगठनों में बंट चका था। इन दलों में से कुछ जैसे सी० पी० आई० (एम एल-लिबरेशन) खुली लोकतांत्रिक राजनीति में भागीदारी करते हैं।

(ख) सरकार ने नक्सलवादी आंदोलन से निपटने के लिए कड़े कदम उठाए हैं। मानवाधिकार समहों ने सरकार के इन कदमों की आलोचना करते हए कहा है कि वह नक्सलवादियों से निपटने के क्रम में संवैधानिक मानकों का उल्लंघन कर रही है। नक्सलवादी हिंसा और नक्सल विरोध सरकारी कार्रवाई में हजारों लोग अपनी जान गँवा चुके हैं।


Q.27. गुजरात आंदोलन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए एक संक्षिप्त सार लिखिए।

Ans ⇒  प्रस्तावना – जनवरी, 1974 में शुरू हुए आंदोलन से पहले काँग्रेस की सरकार थी। यहाँ के छात्र आंदोलन ने इस प्रदेश की राजनीति पर गहरा असर तो डाला ही, राष्ट्रीय स्तर की राजनीति पर भी इसके दूरगामी प्रभाव हुए। 1974 के जनवरी माह में गुजरात के छात्रों ने खाद्यान्न, खाद्य तेल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमत तथा उच्च पदों पर जारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।

आंदोलन की प्रगति – छात्र आंदोलन में बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भी शरीक हो गईं और इस आंदोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया। ऐसे में गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। विपक्षी दलों ने राज्य की विधान सभा के लिए दोबारा चुनाव कराने की माँग की। काँग्रेस (ओ) के प्रमुख नेता मोरारजी देसाई ने कहा कि अगर राज्य में नए सिरे से चुनाव नहीं करवाए गए तो मैं अनियतकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ जाऊँगा।

आंदोलन के राजनैतिक परिणाम – गुजरात आंदोलन ने गुजरात में व्यापक उथल-पुथल मचा दी। मोरारजी देसाई का गुजरात में व्यापक प्रभाव था। वैसे भी क्षेत्रवाद और प्रांतीयता ने गुजरात में काँग्रेस विशेषकर इंदिरा गाँधी के खिलाफ विरोधी वातावरण तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी।
आजादी के दिनों से ही अनेक गुजरात यह मानते थे कि काँग्रेस ने प्रारम्भ में गुजरात को महाराष्ट्र का काफी समय तक हिस्सा रहा और सरदार पटेल को प्रधानमंत्री न बनने का उन नेताओं का गहरा संबंध नेहरू जैसे नेताओं का हाथ था और अब काँग्रेस में टूट से पहले मोरारजी जैसे कद्दवार राष्ट्रीय नेता को प्रधानमंत्री न बनने देने में स्वयं इंदिरा की बहुत बड़ी भूमिका थी। वस्तुतः मोरारजी अपने काँग्रेस के दिनों में इंदिरा गाँधी के मुख्य विरोधी रहे थे। विपक्षी दलों द्वारा समर्थित छात्र आंदोलन के गहरे दबाव में 1975 के जून में विधान सभा के चुनाव हुए। काँग्रेस इस चुनाव में हार गई।
गुजरात में काँग्रेस (ओ) और कालांतर में जनता दल और भारतीय जनता दल को सत्ता में आने में मूलतः इस आंदोलन में ऐतिहासिक कारक बनकर एक सशक्त पृष्ठभूमि तैयार की थी।

टिप्पणी – इंदिरा समर्थक गुजरातियों, प्रेस और राष्ट्रीय स्तर के अनेक नेताओं और दलों ने गुजरात आंदोलन की आलोचना करते हुए यह कहा कि यह आंदोलन केवल काँग्रेस पार्टी के विरुद्ध नहीं है बल्कि इंदिरा गाँधी के व्यक्तिगत नेतृत्व के विरुद्ध मोरारजी देसाई और अन्य दक्षिण पंथी राजनीतिज्ञों का एक षड्यंत्र है।


Q.28. सुरक्षा के पारंपरिक तरीके कौन-कौन से हैं ? इनमें से प्रत्येक की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।

Ans ⇒  प्रस्तावना – सुरक्षा की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया जाता है कि हिंसा का इस्तेमाल यथासंभव सीमित होना चाहिए। युद्ध के लक्ष्य और साधन दोनों से इसका संबंध है। ‘न्याय युद्ध’ की यूरोपीय परंपरा का ही यह परवर्ती विस्तार है कि आज लगभग पूरा विश्व मानता है कि किसी देश को युद्ध उचित कारणों यानी आत्म रक्षा अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए। इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी युद्ध में युद्ध-साधनों का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए। युद्धरत् सेना को चाहिए कि वह संघर्षविमुख शत्रु, निहत्थे व्यक्ति अथवा आत्मसमर्पण करने वाले शत्रु को न मारे। सेना को उतने ही बल का प्रयोग करना चाहिए जितना आत्मरक्षा के लिए जरूरी हो और उसे एक सीमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए। बल प्रयोग तभी किया जाय जब बाकी उपाय असफल हो गए हों।

तरीके या विधियां – सुरक्षा की परंपरागत धारणा इस संभावना से इनकार नहीं करती कि देशों के बीच एक न एक रूप में सहयोग हो। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है-निरस्त्रीकरण, अस्त्र-नियंत्रण तथा विश्वास की बहाली।

(i) निरस्त्रीकरण – निरस्त्रीकरण की माँग होती है कि सभी राज्य चाहे उनका आकार, ताकत और प्रभाव कुछ भी हो, कुछ खास किस्म के हथियारों से बाज आये। उदाहरण के लिए, 1972 की जैविक हथियार संधि (बायोलॉजिकल वीपन्स, कंवेशन-BWC) तथा 1992 की रासायनिक हथियार संधि (केमिकल वीपन्स कन्वेशन-CWC) में ऐसे हथियारों को बनाना और रखना प्रतिबंधित कर दिया गया है। पहली संधि पर 100 से ज्यादा देशों ने हस्ताक्षर किए हैं और इनमें से 14 को छोड़कर शेष ने दूसरी संधि पर भी हस्ताक्षर किए। इन दोनों संधियों पर दस्तखत करने वालों में सभी महाशक्तियाँ शामिल हैं लेकिन महाशक्तियाँ-अमेरिका तथा सोवियत संघ सामूहिक संहार के अस्त्र यानी परमाण्विक हथियार का विकल्प नहीं छोड़ना चाहती थी, इसलिए दोनों ने अस्त्र-नियंत्रण का सहारा लिया।

(ii) अस्त्र नियंत्रण – अस्त्र नियंत्रण के अंतर्गत हथियारों को विकसित करने अथवा उनको हासिल करने के संबंध में कुछ कायदे-कानूनों का पालन करना पड़ता है। सन् 1972 की एटा बैलिस्टिक मिसाइल संधि (ABM) ने अमेरिका और सोवियत संघ को बैलिस्टिक मिसाइलों को रक्षा कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका। ऐसे प्रक्षेपास्त्रों से हमले की शुरूआत की जा सकती थी। संधि में दोनों देशों की सीमित संख्या में ऐसी रक्षा प्रणाली तैनात करने की अनुमति थी लेकिन इस संधि ने दोनों देशों को ऐसी रक्षा प्रणाली के व्यापक उत्पादन से रोक दिया।

(iii) संधियाँ – अमेरिका और सोवियत संघ ने अस्त्र नियंत्रण की कई अन्य संधियों पर हस्ताक्षर किए जिसमें सामरिक अस्त्र परिसीमन संधि-2 (स्ट्रैटजिक आर्स लिमिटेशन ट्रीटी-SALT और सामरिक अस्त्र न्यूनीकरण संधि (स्ट्रेटजिक आर्स रिडक्शन ट्रीटी-START) शामिल हैं। परमाणु अप्रसार संधि ( न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी-NPT, 1968) भी एक अर्थ में अस्त्र नियंत्रण संधि ही थी क्योंकि इसने परमाण्विक हथियारों के उपार्जन को कायदे-कानून के दायरे में ला खड़ा किया। जिन देशों ने सन् 1967 से पहले परमाणु हथियार बना लिये थे या उनका परीक्षण कर लिया था उन्हें इस संधि के अंतर्गत इन हथियारों को रखने की अनुमति दी गई। जो देश सन् 1967 तक ऐसा नहीं कर पाये थे उन्हें ऐसे हथियारों को हासिल करने के अधिकार से वंचित किया गया। परमाणु अप्रसार संधि ने परमाण्विक आयुधों को समाप्त तो नहीं किया लेकिन इन्हें हासिल कर सकने वाले देशों की संख्या जरूर कम की।

(iv) विश्वास की बहाली – सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में यह बात भी मानी गई है कि विश्वास बहाली के उपायों से देशों के बीच हिंसाचार कम किया जा सकता है। विश्वास बहाली की प्रक्रिया में सैन्य टकराव और प्रतिद्वन्द्वित वाले देश सूचनाओं तथा विचारों के नियमित आदान प्रदान का फैसला करते हैं। दो देश एक-दूसरे को अपने फौजी मकसद तथा एक हद तक अपनी सैन्य योजनाओं के बारे में बताते हैं। ऐसा करके ये देश अपने प्रतिद्वन्द्वी को इस बात का आश्वासन देते हैं कि उनकी तरफ से औचक हमले की योजना नहीं बनायी जा रही। देश एक-दूसरे को यह भी बताते हैं कि इन बलों को कहाँ तैनात किया जा रहा है।


Q.29. भारतीय किसान यूनियन, किसानों की दुर्घटना की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली ?

Ans ⇒  भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाए गए मुद्दे (Issued raised by Bhartiya Kisan Union) – (i) बिजली के दरों में बढ़ोतरी का विरोध किया।

(ii) 1980 के दशक के उत्तरार्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकण के प्रयास हुए और इस क्रम में नगदी फसल के बाजार को संकट का सामना करना पड़ा। भारतीय किसान यूनियन ने गन्ने और गेहूँ की सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोतरी करने,

(iii) कृषि उत्पादों के अंतर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने,

(iv) समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करना।

(v) किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की माँग की।

सफलताएँ (Success)-

(i) जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी माँग मान ली गई। किसानों का यह बड़ा अनुशासित धारणा था और जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गाँवों से उन्हें निरंतर राशन-पानी मिलता रहा। मेरठ के इस धरने को ग्रामीण शक्ति को या कहें कि काश्तकारों की शक्ति का एक बड़ा प्रदर्शन माना गया।

(ii) बीकेयू (BKU) जैसी माँगें देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठाई। महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आंदोलन को ‘इंडिया’ की ताकतों (यानी शहरी औद्योगिक क्षेत्र) के खिलाफ ‘भारत’ (यानी ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया।

(iii) 1990 के दशक के शुरुआती सालों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। यह अपने सदस्यों की संख्या बल के दम पर राजनीति में एक दबाव समूह की तरह सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँगें मनवाने में सफलता पाई। इस अर्थ में किसान-आंदोलन अस्सी के दशक में सबसे ज्यादा सफल सामाजिक-आंदोलन था।

(iv) इस आंदोलन की सफलता के पीछे इसके सदस्यों की राजनीतिक मोल-भाव की क्षमता का हाथ था। यह आंदोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। खेती को अपनी जीविका का आधार बनाने वाले अधिकांश भारतीय किसानों के विपरीत बी । संगठनों के सदस्य बाजार के
लिए नगदी फसल उपजाते थे। बीकेयू की तरह राज्यों के अन्य किसान संगठनों ने अपने सदस्य उन समुदायों के बीच से बनाए जिनका क्षेत्र की चुनावी राजनीति में पहुँच था। महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन और कर्नाटक को रैयत संघ ऐसे किसान संगठनों के जीवंत उदाहरण हैं।


Q. 30. ‘भारत में सिक्किम विलय’ विषय पर एक टिप्पणी लिखिए।

Ans ⇒  भारत में सिक्किम का विलय (Annexation of Sikkim in India)

1. पृष्ठभूमि (Background) – मतलब यह कि तब सिक्किम भारत का अंग तो नहीं था लेकिन वह पूरी तरह संप्रभु राष्ट्र भी नहीं था। सिक्किम की रक्षा और विदेशी मामलों का जिम्मा भारत सरका का था जबकि सिक्किम के आंतरिक प्रशासन की बागडोर यहाँ के राजा चोग्याल के हाथों में थी। यह व्यवस्था कारगर साबित नहीं हो पायी क्योंकि सिक्किम के राजा स्थानीय जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को सँभाल नहीं सके।

2. सिक्किम में लोकतंत्र तथा विजयी पार्टी का सिक्किम को भारत के साथ जोड़ने का प्रयास (Democracy in Sikkim and Victorious party’s efforts to connect Sikkim with India) – एक बड़ा हिस्सा नेपालियों का था। नेपाली मूल की जनता के मन में यह भाव घर कर गया कि चोग्याल अल्पसंख्यक लेपचा-भूटिया के एक छोटे-से अभिजन तबके का शासन उन पर लाद रहा है। चोग्याल विरोधी दोनों समुदाय के नेताओं ने भारत सरकार से मदद माँगी और भारत सरकार का समर्थन हासिल किया। सिक्किम विधानसभा के लिए पहला लोकतांत्रिक चुनाव 1974 में हुआ और इसमें सिक्किम काँग्रेस को भारी विजय मिली। वह पार्टी सिक्किम को भारत के साथ जोडने के पक्ष में थी।

3. सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य (प्रांत) बनाया गया (Sikkim was declared 22nd State (or province) of India) – विधानसभा ने पहले भारत के सह-प्रान्त’ बनने की कोशिश की और इसके बाद 1975 के अप्रैल में एक प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में भारत के साथ सिक्किम के पूर्ण विलय की बात कही गई थी। इस प्रस्ताव के तुरंत बाद सिक्किम में जनमत-संग्रह कराया गया और जनमत-संग्रह में जनता ने विधानसभा के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी। भारत सरकार ने सिक्किम विधानसभा के अनुरोध को तत्काल मान लिया और सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य बन गया। चोग्याल ने इस फैसले को नहीं माना और उसके समर्थकों ने भारत सरकार पर साजिश रचने तथा बल-प्रयोग करने का आरोप लगाया। बहरहाल, भारत संघ में सिक्किम के विलय को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था। इस कारण यह मामला सिक्किम की राजनीति में कोई विभेदकारी मुद्दा न बन सका।


S.N  Class 12th Political Science Question 2022
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