History

Class 12th History ( कक्षा-12 इतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2


Q.11. महाभारत कालीन भारतीय सामाजिक जीवन की प्रमुख विशेषताओं निबंध लिखें।

Ans ⇒ भारत का सामाजिक जीवन (Social Life of India) – मोटे तौर पर महाभारत का काल हम उत्तर वैदिक के अंत से लेकर बुद्ध काल के काल को मानते हैं। इस काल में भी समाज का आधार पारिवारिक जीवन था।

संयुक्त परिवार (Joint Family) – इस काल में कुल या परिवार में सभी सदस्य एक साथ रहते थे। कल का प्रमुख कुलपति कहलाता था। कुलपति या तो पिता होता था या सबसे बड़ा भाई होता था। महाभारत से संदर्भ मिलते हैं प्रायः परिवार में प्रेम होता था। आयु में छोटे सदस्य बढे परिवारजनों का सम्मान करते थे और कुलपति सभी के कल्याण की चिंता करते हुए उनके साथ व्यवहार करता था। नि:संतान दंपत्ति लड़का या लड़की गोद ले सकते थे। इस काल में प्राय: छोटे भाई बहनों की शादी आयु में बड़े भाई-बहनों से पहले करना बुरा माना जाता था। पिता की मृत्यु के बाद सबसे बड़ा भाई अपने छोटे भाई-बहनों का दायित्व निभाता था।

चार आश्रम (The four Ashrams) – इस काल में प्रत्येक व्यक्ति का जीवन व्यवस्था पर आधारित था। जीवन को चार आश्रमों में बाँटा गया था।

बह्मचय – वह काल जब विद्यार्थी अध्यापन में धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करता था।

गृहस्थ – वह काल जब व्यक्ति विवाहित जीवन बिताता था।

वानप्रस्थ – वह काल जब व्यक्ति त्याग का जीवन बिताता और गृहस्थी के बंधनों से मुक्त होने का प्रयत्न करता था।

सन्यास-वह काल जब मनुष्य अपने परिवार और समाज को छोड़कर तपस्वी के रूप में पूर्ण आत्मसंयम का जीवन बिताता था। पर आश्रम-व्यवस्था निम्न वर्ग पर लागू नहीं की जाती थी क्योंकि उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अधिकार न था। अन्य सबके लिए यह जीवन का नियम था किन्तु यह कहना कठिन है कि कितने मनुष्य इस व्यवस्था का पालन करते थे।
यह आश्रम विकसित तो अवश्य हुए थे। परन्तु इसमें जटिलता नहीं थी। इनका प्रभाव जनता के सामाजिक जीवन पर बहुत था। इसके कारण ही लोगों का नैतिक उत्थान हुआ।

जाति प्रथा (Caste System) – जाति प्रथा ने प्राचीन भारतीय समाज को स्थयित्व प्रदान किया। उसने देशी और विदेशी-दोनों तत्वों का समावेश प्राचीन भारतीय समाज में आसानी से कर दिया क्योंकि उनके लिए यहाँ के जाति अधिक्रम में स्थान था। यह उल्लेखनीय है कि अनेक प्राचीन समाजों में जो नग्न शोषण उन दिनों चल रहा था, जैसे कि गुलामी की प्रथा, वह प्राचीन भारत में नहीं था।

स्त्रियों की स्थिति (Position of Women) – स्त्रियाँ पैतृक संपत्ति की स्वामी नहीं हो सकती थीं। वैसे बहुत सी बातों में पूर्ण स्वतंत्रता थी। विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार था। साधारणतया वह देवर के साथ विवाह कर सकती थी। कुछ बातों में स्त्रियों का स्तर बाद में शुद्रों के सामान हो गया। परिवार में पुत्रियों की अपेक्षा पुत्रों का अधिक मान होने लगा।

विवाह प्रणालियाँ (Types of Marriage) – महाभारत काल में भारत में शादी की अनेक प्रणालियाँ प्रचलित थीं जिनमें प्रमुख थी : ब्रह्म विवाह, प्रजापति विवाह, प्रेम विवाह, असुर विबा, देव विवाह, गंदर्व विवाह, राक्षस विवाह, पिशाच विवाह।

शिक्षा (Education) – महाभारत काल में शिक्षा विकसित हो गई थी। उपनयन संस्कार द्वारा जब बच्चों को ब्रह्मचर्य आश्रम में भेजते थे तो गुरु के आश्रम में रहकर सारी विद्या प्राप्ति करता था। गुरु की सेवा करनी होती थी। हवन के लिए जंगल से लकड़ियाँ तोड़कर लाना , चूल्हा जलाना, भिक्षा माँगना, आदि कार्य विद्यार्थी करते थे। विद्यार्थी बिना कोष शुल्क के पढ़ते थे। भाषा सामान्य गणित के साथ-साथ नैतिक शिक्षा और राज परिवार के सदस्यों को अस्त्र-शस्त्र
की शिक्षा गुरु ही दिया करते थे।

खान-पान (Food and Drink) – गेहूँ, चावल, मक्खन, घी के साथ-साथ फल और माँस-मछली आदि का भी उपभोग करते थे। प्राय: लोग बकरे को काटते थे। गो हत्या को सामाजिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता था। घोडे का माँस भी खाते थे जैसा कि अश्व-मेघ की परम्परा में पता चलता है कि मदिरा पान किया जाता था लेकिन अनेक लोग इसे अच्छा नहीं समझते थे ।

मनोरंजन (Enertainment) – घरेलू और मैदानी खेल पाया जा बहत प्रचलित था। मदाना खेलों में रथों की दौड़ बहुत लोकप्रिय था। लोग नत्य और वाद्यवन्द में भी रुचि लेते थे। स्त्रिया पायः नृत्य और गाना सीखती थीं। बाँसूरी, बीणा, ढोल, इत्यादि प्रसिद्ध थे।

चरित्रहीनता (Degeneration of Character) – महाभारत महाकाव्य में अनेक उद्धरण मिलते हैं कि लोगों का जीवन नैतिक दृष्टि से गिर गया था। राजा और धनी लोग एक से ज्यादा स्त्रिया से विवाह करते थे। कहीं-कहीं एक ही महिला से कई भाई शारीरिक संबंध रखते थे। शत्रुओं का धोखे से मारने में कोई बुराई नहीं समझी जाती थी। वैश्या गमन, जूआ खेलना, गाना बजाना और शराब पीना उच्च वर्ग के लोगों में आम बात थी।

वस्र तथा आभूषण (Dress and Ornaments) – इस काल में सूती वस्त्र के साथ-साथ रेशमी और ऊनी वस्त्र भी पहने जाते हैं। पगडी स्त्री तथा पुरुष दोनों ही प्रयोग करते थे कढ़ाई किये वस्त्रो को विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता था। केसरिया रंग विशेष रूप से पुरुषों के लिए पसंद किया जाता था। स्त्री, पुरुष विभिन्न धातुओं के आभूषण पहनते थे।


Q.12. जैन धर्म के मुख्य उपदेशों ( शिक्षाओं) का वर्णन करें। भारतीय समाज ( जिवन ) पर इसका क्या प्रभाव पड़ा ?

Ans ⇒ जैन धर्म के संस्थापक वर्द्धमान महावीर थे। जैन धर्म की शिक्षाएँ निम्नलिखित था ।

(i) आत्म निग्रह से आत्मज्ञान होता है। इसे प्राप्त करने के लिए सम्यक् विश्वास, सम्यक ज्ञान तथा सम्यक् कर्म पर बल दिया गया।
(ii) अहिंसा पर बहुत बल दिया जाता था। उनका कथन था कि निर्जीव वस्तुओं में भी अनुभूति होती है।
(iii) जैन धर्म का पालन करने के लिए पाँच महाव्रत थे –
(i) अहिंसा (ii) सत्य (iii) चोरी न करना (iv) ब्रह्मचर्य (v) अपरिग्रह।

भारतीय समाज पर जैन धर्म के प्रभाव (Effects of Jain Religion on Indian Society) – भारतीय समाज पर जैन धर्म के निम्नलिखित प्रभाव थे –
(a) जाति – पाँति का खंडन (Opposition of Caste System)  – जेन धर्म में जातीय बन्धनों पर कड़ा प्रहार किया गया। उन्होंने भ्रातृभाव तथा सद्भावना को बढ़ावा दिया। इससे लोगों में दया, ममता, त्याग आदि भावनाएँ उत्पन्न हुईं।

(b) हिन्द धर्म की कट्टरता पर प्रहार (Attack on the Rigidity of Hindus religion) – ब्राह्मणों द्वारा अनेक कर्मकाण्डों – यज्ञ, बलि अथवा खर्चीले अनुष्ठानों से जनसाधारण परेशान था। जैन धर्म बिना आडम्बर के सीधा-साधा धर्म था। इसने लोगों (हिन्दुओं) के मन पर प्रभाव डाला।

(c) राजनैतिक दर्बलता (Political Weakness) – जैन धर्म की ‘अहिंसा परमो धर्म’ की नीति से प्रभावित होकर लोगों ने युद्ध में रुचि लेना छोड़ दिया। इसके परिणामस्वरूप कालान्तर में विदेशी शक्तियों ने आकर भारत पर अपना अधिकार जमा लिया।

(d) खान-पान में परिवर्तन (Changes Eating Habits) – अहिंसा की भावना से प्रेरित होकर लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया। इससे जीव हत्या तो रुकी ही, साथ ही पशु धन में वृद्धि भी हुई।

(e) भारतीय कला, स्थापत्य कला और साहित्य पर प्रभाव (Eflects of Indian Art, Architecture andLiterature) – दिलवाड़े के जैन मन्दिर, माउण्ट आबू का जैन मन्दिर, खजरानो के जैन मन्दिर एवं अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ स्थापत्य कला के सुन्दर नमूने हैं। जैन धर्म के अंग ग्रन्थ ऐतिहासिक महत्त्व के हैं।


Q.13. जैनधर्म की सफलता के कारणों को दर्शायें।

Ans ⇒ महावीर के जीवनकाल में ही और उनकी मृत्यु के पश्चात् भी जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हआ। जैनधर्म की सफलता या विकास में अनेक कारणों ने योगदान किया –

तत्कालीन राजवंशों का समर्थन – जैनधर्म की सफलता के लिए कुछ सीमा तक महावीर का एक राजपरिवार से सम्बद्ध होना था। महावीर के उपदेशों और उनके आभिजा में उत्पन्न होने से प्रभावित होकर क्षत्रिय-राजाओं ने उनके उपदेशों को उत्साहपूर्वक ग्रहण और उनके समर्थक बन गए। जैनग्रंथ आवश्यकचूर्णि से ज्ञात होता है कि वज्जिसंघ के पर चेटक एवं अवन्ती का राजा प्रद्योत अपनी आठ रानियों के साथ महावीर का अनुयायी बन अन्य जैनग्रंथों (उत्तराध्ययनसूत्र, औपपादिकसूत्र इत्यादि) से भी पता चलता है कि बिम्बिसार अजातशत्रु जैसे मगध के शक्तिशाली शासकों, कौशाम्बी नरेश की रानी मुगावती, सिन्धु-सौवीर राजा उदयन, पावा के मल्ल इत्यादि भी महावीर के समर्थक थे। बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण में और चेदिवंशीय शासक खारवेल ने उड़ीसा में इसका प्रचार किया। शासकों द्वारा जैनधर्म को मान्यता देने के परिणामस्वरूप उन राज्यों की जनता और आभिजात्य वर्ग के बीच भी नए धर्म की लोकप्रियता बढ़ी।

वैश्यों का समर्थन – नए धर्म को लोकप्रिय और सफल बनाने में वैश्यवर्ग का भी बहत बड़ा योगदान रहा है। जैनधर्म ने वस्तुतः नवीन आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप ही अपने को ढाला था। हिंसा पर प्रतिबंध लगाने से नवीन कृषि प्रणाली को लाभ पहुँचा। पशुधन का हनन रुक गया, कृषि का उत्पादन बढ़ा। परिणामस्वरूप व्यापार-वाणिज्य, नगरों का उदय, सिक्कों का प्रचलन, कर्ज और सूद की प्रथा और नागरीय जीवन का विकास संभव हो सका। इन नए आर्थिक परिवर्तनों से सबसे अधिक लाभ कृषकों, कारीगरों और व्यापारियों (वैश्यों) को ही था। अतः, इस वर्ग ने नए धर्म को अभिवृद्धि में गहरी रुचि ली एवं आर्थिक सहायता भी प्रदान की। यही बात बौद्धधर्म के साथ भी लागू होती है।

सरल प्रचार माध्यम – जैनधर्म की सफलता इस बात पर भी निर्भर थी कि महावीर और अन्य जैन उपदेशकों ने अपने विचारों को जनता के समक्ष सरल और सुबोध भाषा में रखा। अपने उपदेशों से जनसाधारण को अवगत कराने के लिए संस्कृत जैसी गूढ़ और कठिन भाषा का प्रयोग न कर प्राकृत भाषा को, जो जनसाधारण की भाषा थी, इन लोगों ने माध्यम बनाया। जैनों ने कुछ ग्रंथ बाद में यद्यपि संस्कृत में भी लिखे गए, परंतु आरम्भ में वे अर्द्धमागधी में ही लिखे गए। इसके कारण जनता की रुचि इस धर्म में बढ़ी।

भेदभाव की नीति का परित्याग – जैनधर्म की सफलता का एक प्रधान कारण यह था कि इसने ब्राह्मणधर्म की विभेदपूर्ण नीति का त्याग किया और सभी वर्गों और वर्गों को एक समान धरातल पर ला खड़ा कर दिया। महावीर के धर्म में सभी व्यक्ति. समान थे: न कोई ऊँचा मान नाचा। सभी जीवा में समान आत्मा का निवास रहता था। अपने सत्कर्मों द्वारा सभी निरी कर सकते हैं। यहाँ तक कि स्त्रियों और पुरुषों में भी विभेद नहीं किया गया। महावीर ने अपने संधके द्वार सबके लिए समान रूप से खोल दिए। फलतः, ब्राह्मणवाद से त्रस्त जनता नये धर्मो की तरफ आकृष्ट हुई।

जैनधर्म का व्यावहारिक स्वरूप – महावीर का धर्म ब्राह्मणधर्म (वैदिक धर्म) की तरह आडम्बरपूर्ण नहीं था। इस धर्म में आस्था रखना बिलकुल ही सरल था। निर्वाण की प्राप्ति ना तो पुरोहितों के माध्यम की जरूरत थी, न ही यज्ञ या बलि की। बिना कि पाँच महाव्रतों एवं त्रिरत्नों का पालन कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता था। यद्यपि जैन जिलों के लिए धर्म के नियम कड़े थे, तथापि जनसाधारण के लिए ये नियम कठिन ने नए धर्म का स्वागत किया।
जैनसंघ का योगदान – जैनधर्म के प्रचार में जैनसंघ की भी महत्त्वपर संघ का स्थापना महावीर के पूर्व ही हो चुकी थी, परंतु महावीर ने नए ढंग से संघ को प्रचार का माध्यम बनाया। संघ के द्वार सभी के लिए खुले हुए थे, इसमें किसी का प्रवेश वर्जित नहीं था। यहाँ तक कि ब्राह्मणों को भी इसमें शामिल किया गया। इसके सदस्य संयम और नियमपूवक जीवन व्यतीत करते हुए धर्म का प्रचार करते थे। इससे नए धर्म की लोकप्रियता बढ़ी । आरम्भ में यद्यपि जैनधर्म का तेजी से प्रचार हआ तथापि यह बौद्धधर्म जैसी स्थिति प्राप्त नहीं कर सका। बाद में इसका पतन होने लगा और यह क्षेत्र-विशेष में ही सिमटकर रह गया। गंगाघाटी में इसका प्रभाव बौद्धधर्म की अपेक्षा कम रहा। अनेक कारणों से जैनधर्म का पतन हुआ।


Q.14. जैनधर्म के पतन के कारणों को बतावें।

Ans ⇒ जैनधर्म बौद्धधर्म की तरह लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका। इसके लिए निम्नाला कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं –

ब्राह्मणधर्म से सम्बन्ध बनाए रखना – जैनधर्म की असफलता का एक मुख्य कारण यह था कि यह अपने-आपको पूर्णतः ब्राह्मणधर्म से अलग नहीं कर सका। महावीर ने वैदिक दर्शन का पूर्ण परित्याग नहीं किया, बल्कि उसे एक दार्शनिक दर्जा प्रदान कर दिया। इस धर्म के कोई विशेष सामाजिक धर्मोपदेश नहीं थे, बल्कि वे वैदिक धर्म से ही मिलते-जुलते थे। जैनों के पारिवारिक संस्कार वैदिक संस्कारों के ही समान थे। ब्राह्मणधर्म की ही तरह भक्तिवाद, देवताओं का अस्तित्व इत्यादि था। वस्तुत: जैनधर्म ने ब्राह्मणधर्म से अपने को अलग करने का प्रयास नहा किया। फलस्वरूप, जनता को इस धर्म में कोई ऐसी नई बात नहीं दिखी, जिससे प्रभावित होकर व इसका तरफ आकृष्ट हों।

नियमों की कठोरता – जैनधर्म ने कठिन तपस्या और आत्मपीड़न पर अत्यधिक बल प्रदान किया। संघ और धर्म के नियम इतने कठोर थे कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनका पालन संभव नहीं था। वस्त्र नहा पहनना, भूखा रहना, धूप में शरीर को तपाना, बाल उखडवाना इत्यादि ऐसे नियम थे, जिनका पालन सबके लिए संभव नहीं था। इसलिए, यह धर्म कभी लोकप्रिय नहीं हो सका।

अहिंसा पर अत्यधिक बल प्रदान करना – जैनधर्म ने अहिंसा की नीति को इतना अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया कि वह अव्यावहारिक बन गया। आरम्भ में क्षत्रिय और कृषक भी इस धर्म की तरफ आकृष्ट हुए, परंतु बाद में वे इससे विमुख होने लगे। क्षत्रिय के लिए युद्ध करना और कृषक के लिए खेती करना, इस धर्म का पालन करते हुए संभव नहीं था। इसी प्रकार जनसाधारण के लिए भी यह संभव नहीं था कि वह सदैव रास्ता साफ करते हुए चले, जल छानकर पीए या मुख पर वस्त्र डालकर श्वास ले, जिससे किसी जीवाणु की हत्या न हो जाए। जैन अहिंसा का दर्शन अव्यावहारिक सिद्ध हुआ और अपनी महत्ता खो बैठा। गृहस्थों के लिए इसका पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य था।

जातिप्रथा के दर्शन को बनाए रखना – जैनधर्म जाति व्यवस्था से भी अपने-आपको पर्णत: अलग नहीं कर सका। महावीर भी मानते थे कि कर्मफल के अनुसार ही मनुष्य का जन्म उच्च या निम्नवर्ग में होता है। संघ में व्यावहारिक रूप से उच्चवर्ण के व्यक्ति ही ज्यादा सम्मिलित हा जाति प्रथा की कमजोरी ने इस धर्म को सर्वमान्य नहीं बनने दिया।

उचित राज्याश्रय का अभाव – जैनधर्म की विफलता का एक अन्य कारण यह था कि इस धर्म को उचित राज्याश्रय नहीं मिल सका। यद्यपि लिच्छवियों, मगध के शासक बिम्बिसार और अजातशत्र ने इस धर्म को स्वीकार किया, तथापि इसे वे अपना पूरा समर्थन नहीं दे पाए। इन लोगों ने बाद में बौद्धधर्म को ज्यादा महत्त्व प्रदान किया। इसी प्रकार, चन्द्रगुप्त मौर्य और खारवेल को छोड़कर अन्य किसी महत्त्वपूर्ण शासक ने इस धर्म को प्रश्रय नहीं दिया। बौद्धधर्म की तरह जैन को किसी अशोक या कनिष्क जैसे धार्मिक उत्साह से परिपूर्ण शासक का समर्थन नहीं मिल फलतः जैनधर्म कभी भी राजधर्म नहीं बन सका। इसलिए भी जनसमुदाय का समर्थन जैनधर्म को नहीं मिल सका।

अन्य कारण – अन्य कारणों के चलते भी जैनधर्म का बहुत अधिक प्रचार नहीं हो जनधर्म के विकास में सबसे बड़ी बाधा बौद्धधर्म के उदय ने कर दी। बौद्ध धर्म जैनधर्म से ज्यादा सरल और ग्राह्य था। इसलिए, धीर-धीर बौद्धधर्म का प्रभाव बढ़ता गया और जैन्धर्मावलम्बियो संख्या घटने लगी। इसी प्रकार, ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान ने भी इस धर्म के विकास को अघात पहुँचाया। जैनधर्म का विभाजन भी इसकी प्रगति में बाधक बना। जैनों का संगठन और प्रचार माध्यम भी कमजोर था, संघात्मक संगठन की कमजोरी के कारण धर्म प्रचारकों का भी अभाव था। अतः, जैनधर्म बौद्धधर्म जैसी सफलता नहीं प्राप्त कर सका।


Q. 15. Describe the life and teachings of Gautam Buddha. (गौतम बुद्ध के जीवन और उपदेशों का वर्णन करें।)

Ans ⇒ गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म 563 ई० पू० में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में अवस्थित लुम्बिनी में हुआ था। उनके पिता शद्धोदन कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।
बचपन से ही गौतम चिन्तनशील व्यक्ति थे। इनका मन सांसारिक भोग विलास में नहीं लगता था। इनका विवाह यशोधरा से हुआ था तथा इनको एक पुत्र भी था, जिसका नाम राहुल था। एक बार इन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी एवं एक मृत व्यक्ति को देखा। इन दृश्यों ने इनके मन में वैराग्य उत्पन्न कर दिया। 29 वर्ष की उम्र में इन्होंने घर छोड़ दिया, जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। ये ज्ञान की प्राप्ति के लिए जगह-जगह भटकते रहे। अन्त में 35 वर्ष की उम्र में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तब से वे बुद्ध अर्थात् प्राज्ञावान कहलाने लगे। उन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया जिसे धर्मचक्र प्रवर्त्तन कहते हैं। वे लगभग 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे एवं समकालीन सभी वर्ग के लोग उनके शिष्य बने। 483 ई० पू० में पूर्वी उत्तरप्रदेश में कुशीनगर नामक स्थान पर उनकी मृत्यु हुई। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहते हैं।

गौतम बुद्ध व्यावहारिक सुधारक थे। वे आत्मा एवं परमात्मा से सम्बन्धित निरर्थक वाद-विवादों से दूर रहे तथा उन्होंने दोनों के अस्तित्व से इनकार किया। उन्होंने कहा कि संसार दु:खमय है और इस दु:ख के कारण तृष्णा है। यदि काम, लालसा, इच्छा एवं तृष्णा पर विजय प्राप्त कर ली जाये तो निर्वाण प्राप्त हो जायेगा, जिसका अर्थ है कि जन्म एवं मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जायेगी।
गौतम बुद्ध ने निर्वाण की प्राप्ति का साधन अष्टांगिक मार्ग को माना है। ये आठ साधन हैं-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। उन्होंने कहा कि न तो अत्यधिक विलाप करना चाहिए और न अत्यधिक संयम ही बरतना चाहिए। वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे। उन्होंने सामाजिक आचरण के कुछ नियम निर्धारित किये थे जैसे-पराये धन का लोभ नहीं करना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, नशे का सेवन नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए तथा दुराचार से दूर रहना चाहिए।


Q.16. बौद्ध धर्म के पतन के कारणों को लिखिए।

Ans ⇒ बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे-

(i)हिन्द धर्म में सधार (Reforms in Hinduism) – हिन्दू धर्म के असंख्य देवी – देवता हैं। अतः उन्होंने गौतम बुद्ध को भी अवतार मानकर उसकी भी पूजा अर्चना शुरू कर दी। इनके कुछ सिद्धान्तों जैसे सत्य और अहिंसा को ग्रहण कर लिया। ब्राह्मणों एवं हिन्दू विद्वानों के समय पर चेत जाने के कारण हिन्दू धर्म का विघटन रुक गया। जो लोग हिन्दू धर्म छोड़कर चले गये थे उसे उन्होंने पुनः स्वीकार कर लिया।

(ii) बौद्ध धर्म का विभाजन (Split in Buddhism) – कनिष्क के काल में बौद्ध धर्म का विभाजन हीनयान और महायान के रूप में हो गया था। महायान शाखा को मूर्तिपूजा की छूट दी गई जिसके फलस्वरूप कई लोगों ने फिर से इस धर्म में प्रवेश पा लिया, जो पहले इसे छोड चुके थे।

(iii) बौद्ध मठों में भ्रष्टाचार(Corruption in the Buddhist Sanghas) – मठों में सुख-सुविधाओं के मिल जाने तथा स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने की छूट दिये जाने के कारण मठों में भ्रष्टाचार फैल गया। भिक्ष तथा भिक्षुणियाँ धार्मिक कार्यों की आड़ में विषय-वासनाओं में लग गये। उनका चरित्र भ्रष्ट हो गया। उनके सब त्याग, तपस्या व आदर्श मिट्टी में मिल गये। गौतम बुद्ध के उपदेशों को भूलकर वे वासनाओं में लिप्त हो गये जिससे समाज पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

(iv) राजकीय सहायता का न मिलना (LOSS of Royal Patronage) – कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् बौद्धों को राजकीय सहायता मिलनी बन्द हो गई। गुप्त साम्राज्य के आ जाने के कारण हिन्दू धर्म का बढ़ावा मिलना प्रारम्भ हो गया। उधर बौद्ध धर्म धनाभाव के कारण अधिक दिनों तक नहीं चल सका।

(v) बौद्ध धर्म में जटिलता आना (Arrival of Complexity in the Buddhism) – बौद्धों ने हिन्दुओं के कई सिद्धान्त ग्रहण कर लिये थे। जन साधारण की भाषा को छोड़कर वे सस्कृत में साहित्य रचना करने लगे थे। अतः यह धर्म जनता की समझ से बाहर होने लगा था।

(vi) हिन्दू उपदेशकों का आना (Coming of the flindu Missionaries) – कुमरिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे हिन्दू विद्वानों के मैदानों में आ जाने से बौद्ध विद्वानों की दाल गलनी बंद हो गई थी। वे इन सिद्धान्तों के तर्कों के सामने नहीं ठहर पाते थे।

(vii) राजपूत शक्ति का विस्तार (Risc of Rajpoot Power) – सातवीं से ग्यारहवा शता तक सारे उत्तरी भारत में राजपूतों की सत्ता छा गई। राजपूत शक्ति के उपासक थे। वे अहिंसा का कायरता मानते थे। उनका मत था कि बौद्ध मत में अहिंसा का अर्थ मृत्यु को बुलावा देना हाता है, अतः अहिंसा आदि सिद्धान्त ताक पर रख दिये गये। इससे बौद्ध धर्म का प्रचार कार्य बन्द हान लगा और वे विदेशों में जाने लगे।

(viii) मसलमानों के आक्रमण (The Muslim Invasions) – बारहवीं शताब्दा म महसूस गजनवी और अन्य आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किये। बौद्धों में उनके आक्रमण का मुकाबला करने का साहस न था। अत: वे या तो मारे गये, या निकटवर्ती क्षेत्रों जैसे नेपाल, तिब्बत, बमा, श्रीलंका आदि में चले गये।

(ix) हूणों का आक्रमण (Invasions of the Hunas) – बौद्धों की अधिकतम हानि हणों द्वारा हुई। उन्होंने हजारों भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। उनके मठों को खण्डहर बना दिया गया। तक्षशिला आदि विश्वविद्यालयों को आग लगा दी तथा बौद्ध साहित्य को जला दिया गया। इस प्रकार से पंजाब, राजपूताना एवं उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त से बौद्धों का सफाया हो गया था।


Q.17. Discuss the political condition of India in the sixth Century B.C.(छठी शताब्दी ई० पू० में भारत की राजनीतिक दशा का वर्णन करें।) Or, Discuss the sixteen Mahajanapadas of 6th century B.C. अथवा, (बुद्धकालीन सोलह महाजनपदों का परिचय दें।)

Ans ⇒  छठी शताब्दी ई. पू. में उत्तरी भारत की राजनीतिक अवस्था में उत्तरोत्तर उन्नति हो रही थी। वैदिककाल में कबीलों या जनों का महत्व था।उत्तर वैदिककाल में प्रादेशिक राज्यों की स्थापना का काम हुआ था और ई. पूर्व छठी शताब्दी में कई महाजनपदों की स्थापना हुई । इसका वर्णन हमें बौद्ध और जैन धर्मग्रन्थों में मिलता है। बौद्ध धर्म ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय में अंग, मगध, काशी, कोशल, बज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अस्मक, अति, गांधार और कंबोज का वर्णन मिलता है। जैन धर्मग्रन्थ भगवती सूत्र में अंग, बंग, मगध, मलय. मालव अच्छ, वच्छ, कच्छ, पाध, लाध, वज्जि, मोलि, काशी, कोशल, अवाह और सम्मतर का वर्णन मिलता है। इन दोनों सूचियों में अंग, मगध, वत्स, बज्जि, काशी और कोशल का नाम समान रूप से मिलता है। इस संदर्भ में अंगुत्तर निकाय द्वारा प्रदत्त सूची को ही ज्यादा प्रामाणिक माना गया है, क्योंकि इसमें समकालीनता की झलक अधिक है। बौद्ध साहित्य में दस गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है। ये गणराज्य थे-कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय, पावा के मल्ल, कुशीनारा के मल्ल. मिथिला के विदेह, पिप्पलीवन के मोरिय, सुंसुमार पर्वत के भग्ग, अल्कप्प के बलि से सपत्र के कलाम और वैशाली के लिच्छवि। कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तरी भारत कई महाजनपदों और गणराज्यों में विभाजित था।

सोलह महाजनपद

1. अंग – अंग मगध के पूर्व में स्थित था। इसकी राजधानी चंपानगरी में थी, जो सभ्यता और संस्कृति का केंद्र था। चम्पानगरी एक व्यापारिक नगर के रूप में मशहूर था। विधुर पंडित जातक के अनुसार राजगृह भी अंग का ही नगर था। अंग का मगध से बराबर संघर्ष होता रहता था। बाद म मगध की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शिकार होकर उसे अपनी स्वतंत्रता खोनी पड़ी।

2. मगध – छठी शताब्दी ई० पूर्व में मगध एक शक्तिशाली राज्य था। इसकी राजधानी राजगृह में थी। वृहद्रथ और जरासंध यहाँ के प्रमुख राजा हो चुके थे। ये प्राग्बुद्ध काल के शासक थे। मगध साम्राज्यवादी नीति में विश्वास रखता था। इसने अंग पर अधिकार भी कर लिया था।

3. काशी – काशी की राजधानी वाराणसी थी। यह वरुणा और असी नदियों के संगम पर बसा हुआ था। बारह योजनों में फैला यह नगर भारत के सर्वश्रेष्ठ नगरों में से था। महाबग्ग में इसके वैभव का उल्लेख सुंदर ढंग से किया गया है। कोशल के साथ राजनीतिक प्रभुता के लिए इसकी लड़ाई होती रहती थी।

4. कोशल – यह राज्य काशी के उत्तर में स्थित था। इसके विस्तार का क्षेत्र उत्तर प्रदेश का मध्य भाग था। इसकी राजधानी श्रावस्ती में थी। इस समय तक इसकी पहली राजधानी अयोध्या का महत्व कम हो चुका था। इसका काशी के साथ बराबर संघर्ष होता रहता था। इसने काशी को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। आगे चलकर मगध के शासक अजातशत्रु ने कोशल को जीतकर मगध में मिला लिया।

5. बृज्जि – बृज्जि आठ राज्यों का संघ था जिसमें लिच्छवि, विदेह और ज्ञात्रिक विशेष महत्वपूर्ण थे। यहाँ गणतंत्रीय शासन पद्धति थी। इसकी राजधानी वैशाली में थी। वैशाली सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र था। इस संघ की स्वतंत्रता पर भी मगध ने ही आघात पहुँचाया था।

6. मल्ल – मल्ल भी एक महत्वपूर्ण गणराज्य था। यह वृज्जि के पश्चिम और कोशल के पूर्व में स्थित था। यह दो शाखाओं में विभक्त था। एक पावा के मल्ल के नाम से जाने जाते थे, दूसरा कुशीनगर के मल्ल के नाम से जाने जाते थे। इनका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।

7. चेदि – चेदि नामक राज्य यमुना के दक्षिण में स्थित था तथा इसकी राजधानी शक्तिमती थी। शिशुपाल चेदि का ही राजा था।

8. वत्स – वत्स नामक राज्य यमुना के उत्तर में तथा काशी से पश्चिम स्थित था। इसकी राजधानी कौशाम्बी में थी। व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने की वजह से इसका काफी महत्व था।

9. करु – आधुनिक दिल्ली और मेरठ के समीप कुरु नामक महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में थी। प्रारंभ में यहाँ राजतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था थी, किन्तु बाद में यहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई। एक जातक के अनुसार, इसमें 300 के लगभग संघ थे। जातकों में यहाँ के राजाओं का विवरण मिलता है। इसमें सुतसोम, कौरव एवं धनंजय का नाम उल्लेखनीय है।

10. पांचाल – पांचाल महाजनपद कुरु के पूर्व और दक्षिण में स्थित था। गंगा नदी के द्वारा यह दो भागों में बाँट दिया गया था। उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिछत्र और दक्षिण पांचाल की राजधानी काम्पिल्य नगर में थी। यहाँ भी कुरु की तरह ही राजतंत्र और बाद में गणतंत्र की स्थापना हुई थीं। बुलानी ब्रह्मदत्त पांचालों का एक महान शासक था।

11. मत्स्य – मत्स्य नामक महाजनपद द्विषद्वती नदी के दक्षिण में स्थित था। इसकी राजधानी विगटनगरी थी। इस पर पहले चेदियों ने और बाद में मगध ने अधिकार कर लिया था।

12. शुरसेन – शूरसेन का राज्य कुरु के दक्षिण और यमुना के किनारे था। इसकी राजधानी मथूरा था। यहां पहले गणतंत्र, फिर राजतंत्र की स्थापना हुई थी। यहाँ यादवों का शासन था।

13. अस्मक – यह जनपद गोदावरी नदी के दक्षिण में स्थित था तथा इसकी राजधानी था। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं का यहाँ शासन था। अवन्ति के साथ संघर्ष में इसने अपनी स्वंतंत्रता गँवा दी।

14. अवन्ती – विन्ध्य पर्वत के उत्तर में यह एक शक्तिशाली राज्य था जो उत्तर और न भारत के बीच कड़ी का काम करता था। यह भी दो भागों उत्तरी और दक्षिणी अवन्ति में बंद था। उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जयनी और दक्षिणी अवन्ति की राजधानी महिष्मती थी । विस्तार क्षेत्र आधुनिक मालवा प्रांत था।

15. गांधार – गांधार नामक जनपद आधुनिक अफगानिस्तान में सिंधु नदी के किनारे स्थित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। इसका अवन्ति और मगध से शत्रुतापूर्ण संबंध था। इसकी प्रसिति का कारण तक्षशिला स्थित विश्वविद्यालय था।

16. कंबोज – गांधार के उत्तर-पश्चिम में कंबोज नामक महाजनपद स्थित था। इसका हाटक या राजपुर थी। संभवत: द्वारका भी इसी राज्य के अंतर्गत स्थित था।

अन्य छोटे राज्य

अंगुत्तर निकाय में वर्णित इन महाजनपदों के अलावा केकय भद्रक, त्रिगर्त, यौधेय, शिाव, अम्बष्ठ, सौबीर आदि राज्य भी थे, लेकिन ये बहुत छोटे थे और साम्राज्यवादी ताकतों के बीच महत्वहीन थे।

दस गणराज्य : सोलह महाजनपदों के अलावा पालि ग्रंथों में दस गणराज्यों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। इनमें से कछ का उल्लेख तो सोलह महाजनपदों के अंतर्गत भा हा ३० राज्यों में वंश-परम्परा के अनुसार कोई राजा नहीं होता था, बल्कि प्रजा द्वारा निर्वाचित व्याक्त शासन का प्रमुख होता था। इन दसों गणराज्यों का विवरण नीचे प्रस्तुत है –
1. कपिलवस्तु के शाक्य – यह नेपाल की तराई में स्थित था। यहाँ के शासन के प्रधान शद्धोधन थे जो बद्ध के पिता थे। उनका शासन 500 सदस्यों वाली परिषद् की सहायता स चलता था।

2. रामग्राम के कोलिय – कपिलवस्त के पूर्व में कोलिय लोगों का राज्य था। इनका शाक्या से बराबर संघर्ष होता रहता था।

3. पावा के मल्ल – यह उत्तर प्रदेश के गोरखपर के समीप स्थित था। इसकी राजधानी पावा में थी। यहीं संभवतः महावीर का देहांत हुआ था।

4. कुशीनारा के मल्ल – यह भी उत्तर प्रदेश में ही था और बुद्ध का परिनिर्वाण संभवतः यहीं हुआ था।

5. मिथिला के विदेह – विदेहों का राज्य एक अराजक गणराज्य था। जहाँ जनक जस ख्याति प्राप्त राजा हुए थे।

6. पिप्पलीवन के मोरिय – यहाँ शक्तियों की ही एक शाखा राज्य करती थी। मोरों की अधिकता के कारण यहाँ के लोगों को मोरिय के नाम से जाना जाता था।

7. सुमेर पर्वत के भग्ग – यहाँ ब्राह्मणों का शासन था। इनका राज्य उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के नजदीक था। इनका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में भी मिलता है।

8. अलकप्प के बुलि – बुलि लोगों का राज्य बिहार के आधुनिक मुजफ्फरपुर और शाहाबाद के नजदीक कहीं था।

9. केसपुत्र के कलाम – इसका वर्णन हमें शतपथ ब्राह्मण और जातक ग्रंथों में मिलता है। बुद्ध के गुरु आलार कलाम यहीं के रहनेवाले थे। 

10. वैशाली के लिच्छवि – लिच्छवियों का यह गणराज्य था और इसकी राजधानी वैशाली में थी। वैशाली एक वैभवशाली नगर था। अजातशत्रु के समय में मगध के द्वारा इसकी स्वतंत्रता छीन ली गयी थी। आम्रपाली यहाँ की नगरवधू एवं नर्तकी थी जो बाद में बुद्ध के सम्पर्क में आकर भिक्षुणी बन गयी थी।

राजनीतिक प्रवृत्तियाँ
उपरोक्त बातों को देखने से हमें उस समय की विभिन्न राजनीतिक प्रवृत्तियों का पता चलता है, जो निम्नलिखित हैं –

1. विकेन्द्रीकरण की भावना – ई० पूर्व छठी शताब्दी में संपूर्ण भारत कई भागों में विभाजित था। बौद्ध और जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार भारत सोलह महाजनपदों में विभाजित था। इसके अलावा भी कुछ छोटे-छोटे राज्यों का पता हमें अन्य स्रोतों से चलता है, जिनमें केकय, मुद्रक, त्रिगर्त, आदि प्रमख थे। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में विकेन्द्रीकरण की भावना काम कर रही थी ।

2. शासन की पद्धतियाँ – उपरोक्त राज्यों के अध्ययन से पता चलता है कि इस काल में दो तरह की शासन-पद्धतियाँ प्रचलित थीं। कोशल, मगध, वत्स एवं अवन्ति उस समय के राजतन्त्र थे। बज्जि. मल्ल, कपिलवस्तु, मिथिला आदि में गणतंत्रीय पद्धति का बोलबाला था। लेकिन राजतंत्रीय एवं गणतंत्रीय दोनों ही शासन पद्धतियाँ प्रचलित थीं।

3. परिवर्तनशील शासन – पद्धति- इस संदर्भ में एक बात और प्रकाश में आती है। वह यह कि समय के अंतराल में किसी-किसी महाजनपद में शासन-पद्धति में परिवर्तन भी होता रहता उदाहरणस्वरूप कुरु और पांचाल में राजतंत्रीय व्यवस्था के बाद गणतंत्र की स्थापना हुई थी; जबकि शूरसेन में गणतंत्र की कब्र पर राजतंत्र की स्थापना हुई। यह समय के मुताबिक राजाओं की मानसिकता में होनेवाले परिवर्तनों को बतलाया है।

4. साम्राज्यवादी भावना का विकास – उपरोक्त विवरणों से यह भी पता चलता है कि छटी शताब्दी ई० पू० राजनीतिक दृष्टीकोण से उथल-पुथल का समय था। एक जनपद दूसरे जनपद के साथ संघर्ष करता था। विजय और विस्तार की लालसा में महाजनपदों के बीच होनेवाला यह संघर्ष उस समय के राजनीतिक जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। कहने का तात्पर्य यह है कि साम्राज्यवाद की भावना का विकास हो रहा है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ई०पूर्व छठी शताब्दी में भारत कई महाजनपदों में विभक्त’ था जिनमें अलग-अलग शासन-पद्धतियों की स्थापना हुई थी।

 


Q.18. मगध साम्राज्य के उत्थान के क्या कारण थे ?

Ans ⇒ छठी शताब्दी ई. पूर्व के महाजनपदों में अंततः मगध एक साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभरा। विम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे पराक्रमी राजाओं ने मगध के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 321 ई० पूर्व तक इसने एक विशाल साम्राज्य का रूप धारण कर लिया।

मगध साम्राज्य के उत्थान के कारण 

(i) लोहे का भंडार – मगध की आरंभिक राजधानी राजगृह के नजदीक लोहे का भंडार था। लोहे के औजारों से मगध के लोगों ने जंगलों को साफ किया और इसका अनकल असर कषि के विकास पर पड़ा। कृषि के क्षेत्र में विकास से मगध की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई और उसके राजनीतिक उत्कर्ष में इसने सहायक की भूमिका निभायी। लोहे से शस्त्रास्त्रों का भी निर्माण हुआ। इससे भी वहाँ के लोगों को अन्य जनपदों को जीतने में आसानी हुई। कहने का तात्पर्य यह है कि लोहा के भंडार की उपलब्धि उनके लिए दोहरे लाभ की बात सिद्ध हुई। इसने न केवल इन्हें सुदृढ़ आर्थिक आधार प्रदान किया बल्कि उनके राजनीतिक उत्कर्ष में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

(ii) सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थलों पर राजधानी – मगध की दोनों राजधानियाँ सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थानों पर थीं। राजगृह पाँच पहाड़ियों से घिरा हुआ था और पाटलिपुत्र गंगा, गंडक तथा सोन के संगम पर स्थित था। इसके अलावा यह चारों ओर से नदियों से घिरा था। नदियों के किनारे बसे होने से संचार की काफी सुविधा थी। राजगह एक अभेद्य दर्ग था तथा पाटलिपुत्र एक जलदुर्ग की तरह था। पाटलिपुत्र के उत्तर और पश्चिम में गंगा तथा सोन नदी बहती थी और दक्षिण से पुनपुन नदी घेरे हुई थी। मगध का सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपर्ण स्थान पर होना भी उसके राजनीतिक उत्कर्ष का एक कारण था।

(iii) हाथी के उपयोग की ख़ास सुविधा – मगध को देश के पूर्वी भाग से हाथी मिलने थे। उन्होंने अपनी सेना में हाथियों से युक्त सेना को भी स्थान दिया तथा अपने पड़ोसियों के निकट इसका उपयोग किया। हाथियों के सहारे वे दुर्गों को भेदने और यातायात की सुविधा से रहित शानों पर पहुँचने का काम करते थे। हाथियों के उपयोग की इस खास सुविधा ने मगध के उत्कर्ष महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। ऐसा इसलिए कि भारत के विभिन्न राज्य घोड़े और रथ का उपयोग तो जानते थे, लेकिन मगध ही पहला राज्य था जिसने हाथियों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया।

(iv) व्यापारिक मार्ग से जुड़ा होना – मगध व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। वह भी जल-मार्ग से देश के विभिन्न भागों से जुड़ा हुआ था। अत: यहाँ व्यापार और वाणिज्य ” का उदय हुआ था। व्यापार और वाणिज्य से कर के रूप में प्राप्त होनेवाली आमदनी से राजा आर्थिक दृष्टि से काफी ठोस हो गये थे और उनकी इस आर्थिक सुदृढ़ता ने राजनीतिक महल प्रदान करने में काफी मदद की थी।

(v) प्रतापी राजाओं का योगदान – मगध के उत्कर्ष का एक कारण वहाँ के प्रतापी राजा भी थे। बिंबिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे कई साहसी और महत्त्वाकांक्षी राजा मगध में हुए। इन्होंने सभी उपलब्ध साधनों-ईमानदारी तथा बेईमानी से अपने राज्य का विस्तार किया और उसे मजबूत बनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर उपरोक्त वर्णित राजाओं की तरह मगध में रजा नहीं हुए होते तो मगध का उत्कर्ष संभव नहीं होता।


Q.19. Discuss the career and achievements of chandragupta Maurya. (चन्दगप्त मौर्य की जीवनी एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।)

Ans ⇒ चन्द्रगुप्त का जन्म 345 ई० पू० में भोरिय कुल में हुआ था जो सूर्य वंशी शाल्यों की एक शाखा थी और जो नेपाल की तराई में पिप्पलिबिन के प्रजातन्त्र राज्य म शासन करते थे। चन्द्रगप्त का पिता इन्हीं भोरियों का प्रधान था। दर्भाग्यवश एक शक्तिशाली राजा ने उनकी हत्या करवा दी और राज्य भी छीन लिया। चन्द्रगप्त की माता उन दिनों गर्भवता था। इस आपत्ति काल में वह अपने सम्बन्धियों के साथ भाग गई और अज्ञात रूप से पाटलिपुत्र म करने लगी। यहाँ पर अपनी जीविका चलाने तथा अपने राजवंश को गुप्त रखने क लिए यह लोग मयूर-पालकों के मध्य व्यतीत था।

जब चन्द्रगप्त बड़ा हआ तब उसने मगध के राजा के यहाँ नौकरी कर ली और उनकी सेना में भर्ती हो गया। चन्द्रगुप्त बड़ा ही योग्य तथा प्रतिभावान व्यक्ति था। अपनी योग्यता क बल से यह मगध की सेना का सेनापति बन गया। परन्तु कुछ कारणों से मगध का राजा अप्रसन्न हो गया और उसे मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दे दी। इन दिनों मगध में नन्द वंश शासन कर रहा था अपने प्राण की रक्षा करने के लिए चन्द्रगुप्त मगध राज्य से भाग गया और उसने नन्द को विनष्ट करने का संकल्प कर लिया।
यद्यपि चन्द्रगुप्त ने नन्दवंश को उन्मूलित करने का संकल्प कर लिया था परन्तु अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके पास साधन नहीं थे अतएव साधन की खोज में वह पंजाब की ओर चला गया और इधर-उधर भटकता हुआ तक्षशिला पहुँचा, जहाँ विष्णुशुद्र नामक ब्राह्मण से उसकी भेंट हो गई। विष्णुशुद्र को चाणक्य भी कहते हैं, क्योंकि उसके पितामह (बाबा) का नाम : चाणक्य था। उसे कौटिल्य भी कहते हैं, क्योंकि उसके पिता का कुटल था। चाणक्य बहुत बड़ा विद्वान् तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। वह भारत के पश्चिमोत्तर भागों की राजनीतिक दुर्बलता से परिचित था और उसे वह आशंका लगी रहती थी कि वह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार बन सकता है। अतएव वह इस भू-भाग के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर यहाँ एक प्रबल केन्द्रीय शासन स्थापित करना चाहता था जिसमें विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह मगध नरेश की सहायता प्राप्त करने के लिए पाटलिपुत्र गया परन्तु सहायता प्राप्त करने के स्थान पर वह धार्मिक अनुष्ठान में नन्द-राज द्वारा अपमानित किया गया। चाणक्य बड़ा ही क्रोधी तथा उग्र प्रकृति का व्यक्ति था। उसने नन्द वंश को विनिष्ट करने का संकल्प कर लिया। परन्तु नन्द वंश के विशाल साम्राज्य को उन्मलित करने के साधन उसके पास भी न थे अतएव वह इस साधन की खोज में संलग्न था। इसी समय चन्द्रगुप्त से उसकी भेंट हो गई।
चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त दोनों के उद्देश्य एक ही थे। यह दोनों व्यक्ति नन्द वंश का विनाश करना चाहते थे परन्तु दोनों ही के पास साधन का आभाव था।संयोगवश इन दोनों ने एक दो की आवश्यकता की पूर्ति कर दी। चाणक्य को एक वीर साहसी तथा महत्वाकांक्षी नवयवकी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चन्द्रगुप्त ने कर दी और चन्द्रगुप्त को एक विद्वान अनभवी कुटनीति का तथा सेना एकत्रित करने के लिए धन की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चाणक्य ने कर दी। फलतः इन दोनों में मैत्री तथा गठ-बन्धन हो गया।
अब अपने उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी करने के लिए दोनों मित्र विन्ध्यांचल के वनों की चले गये। चाणक्य ने अपना सारा धन चन्द्रगुप्त को दे दिया। इस धन की सहायता से अपने को एक सेना तैयार की और इस सेना की सहायता से मगध पर आक्रमण कर दिया । को शक्तिशाली सेना ने उन्हें परास्त कर दिया और मगध से भाग खड़े हुए। अब इन दोनों मित्रो ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए फिर पंजाब की ओर प्रस्थान कर दिया। अब इन लोगों ने इस बात का अनुभव किया कि मगध राज्य के केन्द्र पर प्रहार कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी। वास्तव में उन्हें इस राज्य के एक किनारे पर उसके सुदूरस्थ प्रदेश पर आक्रमण करना चाहिए था, जहाँ केन्द्रीय सरकार का प्रभाव कम और उसके विरुद्ध असन्तोष अधिक रहता था। इन दिनों यूनानी विजेता सिकन्दर महान पंजाब में ही था और वहाँ के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर रहा था। चन्द्रगुप्त ने नन्दों के विरुद्ध सिकन्दर की सहायता लेने का विचार किया अतएव वह सिकन्दर से मिला और कुछ दिनों तक उसके शिविर में रहा। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वतंत्र विचारों के कारण सिकन्दर अप्रसन्न हो गया और उसको वधकर देने की आज्ञा प्रदान की। चन्द्रगुप्त अपने प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ। अब उसने मगध राज्य के विनाश के साथ-साथ यूनानियों को भी अपने देश से मार भगाने का निश्चय कर लिया और अपने मित्र चाणक्य की सहायता से अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजनाएँ बनाने लगा।

चन्दगप्त की विजय – सिकन्दर के भारत से चले जाने के उपरान्त भारतियों ने यूनानियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। चन्द्रगुप्त के लिए यह स्वर्ण अवसर था और इससे उसने पूरा लाभ उठाने का प्रयत्न किया। उसके क्रांतिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना आरम्भ किया। यूनानी सरदार युडेमान अन्य यूनानियों के साथ भारत छोड़कर भाग गया और जो यूनानी सैनिक भारत में रह गए थे वे तलवार के घाट उतार दिए गए। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया।
पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य पर आक्रमण करने के लिए पूर्व की ओर प्रस्थान कर दिया। वह अपनी विशाल सेना के साथ मगध-साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर टूट पड़ा। मगध नरेश के चन्द्रगुप्त की सेना की प्रगति को रोकने के सभी प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए। चन्द्रगुप्त की सेना आगे बढ़ती गई और मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के सन्निकट पहुँच गई और उसका घेरा डाल दिया। अन्त में नन्द राजा घनानन्द की पराजय हुई और अपने परिवार के साथ वह युद्ध में मारा गया। अब चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र में सिंहासन पर बैठ गया और चाणक्य ने 302 ई० पू० में उसका राज्याभिषेक कर दिया।
उत्तर भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर भी अपनी विजय पताका फहराने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उसने सौराष्ट्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसके बाद लगभग 303 ई० पू० में उसने मालवा पर अधिकार स्थापित कर लिया और पुष्यगुप्त वंश को वहाँ का प्रबन्ध करने के लिए नियुक्त कर दिया जिसने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। इस प्रकार काठियावाड़ तथा मालवा पर चन्द्रगुप्त का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इतिहासकारों की धारणा है कि सम्भवतः मैसूर की सीमा तक चन्द्रगुप्त का साम्राज्य फैला था।
चन्द्रगुप्त का अन्तिम संघर्ष सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर के साथ हुआ। सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त सेल्यूकस उसके साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिकारी बना था। उसने 305 ई. पू. में भारत पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा की व्यवस्था पहले से ही कर ली थी। उसकी सेना ने सिन्धु नदी के उस पार ही सेल्यूकस के सेना का सामना किया। युद्ध में सेल्यूकस की पराजय हो गई और विवश होकर उसे चन्द्रगुप्त के साथ सन्धि करनी पड़ी। सेल्यूकस ने अपनी कन्या का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया और वर्तमान अफगानिस्तान तथा दिलीचिस्तान के सम्पूर्ण प्रदेश चन्द्रगुप्त को दे दिया। उसने मेगास्थनीज नामक एक राजदूत भी चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र में भेजा चन्द्रगुप्त ने भी 500 हाथी सेल्यूकस को भेंट किए। चन्द्रगप्त मौर्य और सेल्यूकस के संघर्ष के सम्बन्ध में डॉ. राय चौधरी ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का राजनीतिक में लिखा है, यह देखा जाएगा कि प्राचीन लेखकों से हमें सेल्यका चन्द्रगुप्त क वास्तविक संघर्ष का विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। वे केवल परिणामों को बतलाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि आक्रमणकारी अधिक आगे बढ़ सका और एक सन्धि कर ली जो वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा सुदृढ़ बना दी गई।

उपर्यक्त विजयों के फलस्वरूप चन्द्रगप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में कष्णा नदी तक फैल गया। परन्तु कलिंग तथा दक्षिणं के कुछ भाग में उनके साम्राज्य के अन्दर न थे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त न बाहुबल तथा अपने मंत्री चाणक्य के बुद्धि बल से भारत की राजनीतिक एकता सम्पन्न की।
चन्द्रगुप्त न केवल एक महान विजेता वरन एक कशल शासक भी था। जिस शासन व्यवस्था का उसने निर्माण किया वह इतनी उत्तम सिद्ध हुई कि भावी शासकों के लिए वह आदर्श बन गई और थोड़े बहुत आवश्यक परिवर्तन के साथ निरन्तर चलती रही।


Q.20. चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध विस्तार से लिखें। अथवा, मौर्य साम्राज्य की शासन पद्धति का वर्णन करें। अथवा, मौर्यों के नागरिक प्रबन्ध के विषय में आप क्या जानते है ।

Ans ⇒ चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध के विषय में विस्तृत जानकारी कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगास्थनीज की इण्डिका से मिलती है। V.A.Smith के अनुसार, “The Mauryan state was organised and carefully graded officials with well defined duties”.

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध का वर्णन निम्न प्रकार है –

1. केंद्रीय शासन (Central Administration) – चन्द्रगप्त मौर्य का शासन एकतंत्रात्मक था। वह स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। सम्राट तीन कार्य मुख्य रूप से करता था –
(a) सम्राट स्वयं अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह विभिन्न विभागों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह विदेशी मामलों की देख-रेख करता था, आवश्यक आदेश निकालता था। गुप्तचरी द्वारा देश के आन्तरिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करता था और देश में शान्ति व्यवस्था बनाये रखता था। बाहरी आक्रमणों से भी देश की रक्षा करता था।

केन्द्रीय प्रशासन में प्रमुख अध्यक्ष-विभाग

S.Nअध्यक्षसम्बंधित विभाग 
1.लक्षणाध्यक्ष मुद्रा तथा टकसाल का अध्यक्ष
2.पौतवाध्यक्ष ‘माप-तौल का अध्यक्ष
3.शुक्लाध्यक्ष राजकीय अर्थ-दण्ड कार्यों का अध्यक्ष
4.सीताध्यक्ष कृषि विभाग का अध्यक्ष
5.आकराध्यक्ष खानों का अध्यक्ष
6.विविताध्यक्ष चरागाहों का अध्यक्ष ।
7.पण्याध्यक्ष व्यापार-वाणिज्य का अध्यक्ष
8.नवाध्यक्ष नौ-सेना का अध्यक्ष
9.सूनाध्यक्ष बूचड़खाने का अध्यक्ष
10.संस्थाध्यक्ष व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष
11.गणिकाध्यक्ष वेश्याओं की व्यवस्था का अध्यक्ष
12.लवणाध्यक्ष नमक विभाग का अध्यक्ष
13.मुद्राध्यक्ष पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष
14.महामात्रापसरण गुप्तचर व्यवस्था-सूचना विभाग का अध्यक्ष
15.सूत्राध्यक्ष कपास, वस्त्र बुनाई उद्योग का अध्यक्ष

 

(b) न्यायाधीश के रूप में वह अपने प्रजा की शिकायतें सुनता था और स्वयं निर्णय दोषी को दंड भी देता था।

(c) सैन्य संगठनकर्ता के रूप में राजा ने देश को आन्तरिक विद्रोहों एवं बाहरी आक्रमणों से बचाने का भार भी अपने कन्धों पर ले रखा था। ( ए० वी० स्मिथ (A. V. Smith) ने एक स्थान पर लिखा है- “The known facts of Chandra Gupta’s adminsitration prove that he was sterndespot.”)

मन्त्रिपरिषद् (Council of Minister) – राजा को शासन कार्य में परामर्श देने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन किया जाता था, यद्यपि सम्राट उसकी सलाह मानने के लिए बाध्य न था परन्तु व्यवहार में वह इसका पालन करता था। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में लिखा है कि राज्य सत्ता बिना सहायता के सम्भव नहीं होती। अतः सम्राट को मंत्री परिषद् बनानी पड़ती है और राज-काज में उसकी सलाह लेनी पड़ती है।

2. प्रान्तीय शासन (Provincial Government) – चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य की विशालता को देखते हुए उसे कई प्रान्तों में बाँट दिया था जिससे उसे शासन कार्य में सुविधा हो गई थी। प्रत्येक प्रान्त का शासन ‘कुमार’ (राजकीय परिवार के सदस्य) के अधिकार में होता था। कुमार के साथ महामात्र भी शासन कार्य में उसकी मदद करता था। सम्राट इन पर पूरा नियंत्रण रखता था। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी प्रान्त थे, जो आन्तरिक नीति में पूर्ण स्वतंत्र थे। वे सम्राट को केवल कर (Tax) देते थे एवं विदेश नीति में उसके अधीन रहते थे।

3. स्थानीय शासन (Local Administration)
(i) नगर प्रशासन (TownAdministration) – मेगास्थनीज ने अपने भारत वर्णन में पाटलिपुत्र (पटना) नगर के विषय में लिखा है कि वह एक भव्य नगर था। यह सौ मील लम्बा और दो मील चौड़ा था। इसके चारों ओर लकड़ी की एक विशाल दीवार थी, जिसमें 64 दरवाजे और 570 बुर्ज थे। इस नगर का प्रबन्ध 30 सदस्यों के एक आयोग द्वारा किया जाता था जिसमें 5-5 सदस्यों की छ: समितियाँ थीं। प्रत्येक समिति के कार्य अलग-अलग थे। पहली समिति नगर के कला-कौशल की देखभाल करती थी। दूसरी समिति विदेशियों के निवास एवं भोजन का प्रबन्ध करती थी। तीसरी समिति जन्म एवं मृत्यु का लेखा-जोखा रखती थी। चौथी समिति का कार्य माप-तौल से सम्बन्धित कारोबार करने वालों की देखभाल करना था। पाँचवीं समिति वस्तुओं के निर्माण एवं उनकी गुणवत्ता की जाँच-पड़ताल करती थी और छठी समिति का कार्य बिक्री वसूल करना था।

(ii) ग्राम प्रशासन (Village Administration) – शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ‘ग्रामिणी’ नामक अधिकारी इसका प्रबन्ध करता था। ग्रामिणी की सहायता के लिये एक सभा होती थी जो ग्राम हित के लिये सड़कें, पुल, तालाब एवं अतिथिशालाओं का प्रबन्ध करती थी। यह समिति मेलों तथा उत्सवों का भी प्रबन्ध करती थी। ग्रामिणी के ऊपर ‘गोप’ और ‘स्थानिक’ आदि अधिकारी होते थे।

4. सेना का प्रबन्ध (Military Administration) – चन्द्रगुप्त के पास अपने विशाल साम्राज्य की रक्षा के लिये एक सुसंगठित और सुदृढ़ सेना थी जिसमें 6 लाख पैदल, 30 हजार घडसवार 9000 हाथी और 8000 रथ थे। सेना के प्रबन्ध के लिए 30 सदस्यों की समिति थी जो 6 समितियों में विभाजित थी। सेना में निम्नलिखित विभाग थे-(i) पैदल (ii) घुड़सवार iii) समदी बेटा (iv) रथ (v) हाथी (vi) अस्त्र-शस्त्र विभाग (vii)रसद विभाग। सैनिकों को राजकोष से वेतन दिया जाता था।

5. न्याय (Justice) – न्याय सम्बन्धी कार्यों का सर्वोच्च अधिकारी राजा स्वयं होता था। नगरों (छोटे नगरों अथवा कस्बों) और गाँवों का न्याय ‘महामात्र’ करते थे। दण्ड व्यवस्था बहुत कठोर थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार 18 प्रकार के दंड दिये जाते थे। कभी-कभी एक ही अपराधी को प्रतिदिन एक नये (अलग-अलग) प्रकार का दंड दिया जाता था। कठोर दंडों के कारण अपराध बहुत कम थे। यदि छोटे न्यायालयों के निर्णय में कोई कमी रह जाती थी तो सम्राट स्वयं निर्णय करता था।

6. भूमिकर (Land Revenue) – कृषकों से उनकी पैदावार का 1/6 भाग भूराजस्व के रूप में लिया जाता था परन्तु आपात काल में इसे बढ़ा भी दिया जाता था। भूमि, वन एवं खानों पर राज्य का अधिकार था। उपज से प्राप्त धन राज्यहित तथा सैन्य संगठन में लगा दिया जाता था।

7. सिंचाई (Irrigation) – चन्द्रगुप्त के शासन काल में सिंचाई नहरों, कुँओं और तालाबों से होती थी। सिंचाई विभाग में विभिन्न अधिकारी होते थे। नहरों से प्राप्त जल के बदले में किसान। सरकार को कर देते थे।

8. सड़कें (Roads) – सड़कों के प्रबन्ध तथा व्यवस्था के लिये एक अलग विभाग था। जिसके अधिकार इसके निर्माण, सधार एवं विस्तार का कार्य करते थे। सडकों के किनारे दूरी बताने के लिए मील के पत्थर लगे होते थे। एक विशाल सड़क तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक जाती थी।अतिरिक्त अन्य सड़कें भी थीं, जो राज्य के प्रमख नगरों को आपस में मिलाती थीं। सड़को के किनारे वृक्ष, पानी पीने के लिए कुएँ और धर्मशालाओं का निर्माण कराया गया था। सड़कों की अच्छी
दशा के कारण व्यापार में उन्नति होती थी।

9. गुप्तचर विभाग (Institution of Spies) – चन्द्रगप्त के शासन काल में गुप्तचर विभाग बहुत सुदृढ़ था। साधु, भिक्षु और भिक्षुणी आदि कई रूपों में घमते थे। राजा को मंत्री, सैनिक, अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों आदि की गतिविधियों की जानकारी शीघ्र पहुँचा देते थे। महलो में कई गुप्तचर होते थे जिससे राजा के विरुद्ध कोई षडयंत्र न रचा जा सके। प्रांतीय शासको के पीछे भी गप्तचर होते थे जिससे उनकी विद्रोह की प्रवृत्ति पर दष्टि रखी जा सके। दूसरे राज्या में भी गुप्तचर भेजे जाते थे जिसके कारण सम्राट के विरुद्ध गतिविधियों का अनुमान लगाया जा सके।

10. अन्य हितकारी कार्य (Other Welfare Works) – चन्द्रगुप्त ने अपना प्रजा के अच्छे स्वास्थ के लिए औषधालय बनवाए। नगरों व गाँवों की सफाई का प्रबन्ध कराया। खान-पान का चीजों की सफाई की देख-रेख की जाती थी। शिक्षा का भी विशेष प्रबन्ध था। मन्दिरों क निमाण के लिए दान दिया जाता था। प्राकृतिक रूप से यदि कृषि उपज की कोई हानि होती थी तो कृषकों से उदारतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। (V.A. Smith के अनुसार- “The Mauryan government in short was highly organised and thoroughly efficient autocracy capable of controlling an empire more extensive than Akbar. It anticipated in many respects, the institutions of Modern times.”)


S.NClass 12th History Question 2022 
1.Class 12th History  ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 1
2.Class 12th History  ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2
3.Class 12th History  ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3
4.Class 12th History  ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
5.Class 12th History  ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5
6.Class 12th History  ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 6
7.Class 12th History  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 1
8.Class 12th History  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2
9.Class 12th History  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 3
10.Class 12th History  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4
11.Class 12th History  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 5
12.Class 12th History  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 6

 

Back to top button